________________
10
भगवान शीतलनाथ ( चिन्ह - श्रीवत्स )
नौवें तीर्थंकर भगवान सुविधिनाथ के पश्चात् धर्मतीर्थ की दृष्टि से विकट समय रहा। इसकी समाप्ति पर भगवान शीतलनाथ स्वामी का जन्म 10वें तीर्थंकर के रूप में हुआ ।
पूर्वजन्म
प्राचीन काल में सुसीमा नगरी नामक एक राज्य था, जहाँ के नृपति महाराज पद्मोत्तर थे। राजा ने सुदीर्घकाल तक प्रजा पालन का कार्य न्यायशीलता के साथ किया । अन्ततः उनके मन में विरक्ति का भाव उत्पन्न हुआ और आचार्य विस्ताघ के आश्रय में उन्होंने संयम स्वीकार कर लिया। अनेकानेक उत्कृष्ट कोटि के तप और साधनाओं का प्रतिफल उन्हें प्राप्त हुआ और उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया। उस देह के अवसान पर उनके जीव को प्रणत स्वर्ग में बीस सागर की स्थिति वाले देव के रूप में स्थान मिला।
जन्म - वंश
एक और राज्य उन दिनों था - भद्दिलपुर, जो धर्माचारी राजा एवं प्रजा के लिए प्रसिद्ध था। महाराज दृढ़रथ वहाँ के भूपति थे, जिनकी महारानी का नाम नन्दा देवी था। महाराजा दृढ़रथ वात्सल्य भाव के साथ प्रजा का पालन करते थे। दीनहीनों की सुख-सुविधा के लिए वे सदा सचेष्ट रहा करते थे। राज्य में स्थल - स्थल पर संचालित भोजनशालाएँ एवं दानशालाएँ इसकी प्रमाण थीं। प्रजा भी राजा के आचरण को ही अपनाती थी और अपनी करुणाभावना तथा दानप्रियता के लिए सुख्यात थी ।
Jain Education International
वैशाख कृष्णा षष्ठी का दिन था और पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र का शुभ योग - प्राणत स्वर्ग से पद्मोत्तर का जीव निकलकर रानीनन्दा देवी के गर्भ में स्थित हुआ। महापुरुषों की माताओं की भाँति ही उसने भी 14 दिव्य स्वप्नों का दर्शन किया। भ्रमित सी माता इन स्वप्नों के प्रभाव से अपरिचित होने के कारण आश्चर्यचकित रह गयी। जिज्ञासावश उसने महाराज से इस प्रश्न की चर्चा की। जब महाराज से रानी को ज्ञात हुआ कि ये स्वप्न उसके लिए जगत् का मंगल करने वाले महापुरुष की जननी होने का संकेत हैं, तो वह हर्ष - विभोर हो गयी ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org