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________________ कात-बात में बोध नाम से प्रसिद्ध है। अब तो आप भी मानेंगे कि जैन धर्म के बहुत सारे सिद्धान्त विज्ञान द्वारा समर्थित हैं। ओमप्रकाश-बड़ा अच्छा समाधान मिला मुझे। अब एक बात और पूछना चाहता हूं मुनिवर ! वह है-जैन-धर्म में खान-पान की पद्धति के सम्बन्ध में। सुना है, जैन-धर्म में खान-पान सम्बन्धी बहुत वजनाएं हैं । क्या यह सही है ? इसके पीछे भी क्या कोई विज्ञान- है ? मुनिवर-खान-पान की वर्जनाएं केवल जैन धर्म में ही नहीं हैं, चिकित्सा विज्ञान द्वारा भी वे स्वीकृत हैं । एक व्यक्ति बिना हिताहित का चिंतन किये सब कुछ खाता रहेगा तो एक दिन उसका पेट कब्रिस्तान बन जाएगा और जल्दी ही उस व्यक्ति को बुढ़ापा और मृत्यु का ग्रास बनना पड़ेगा। जैन धर्म ने खान-पान का पूरा विवेक दिया है और इसे तपस्या के रूप में स्वीकार किया है । तप के बारह भेदों में अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रसपरित्याग ये चार भेद भोजन से जुड़े हुए हैं। अनशन-उपवास आदि तपस्या करना, ऊनोदरी-भूख से कम खाना, भिक्षाचरी-खाने को जो सहज मिल जाए, उसमें संतोष करना, खाने की इच्छा को संक्षिप्त कर लेना । इसका दूसरा नाम वृत्तिसंक्षेप भी है। रस परित्याग-दूध-दही व अन्य गरिष्ठ पदार्थों का त्याग करना। यह ठीक है कि व्यक्ति इनका पालन पूरी तरह नहीं कर सकता है क्योंकि शरीर की भी अपनी अपेक्षाएं है। कोई श्रम ज्यादा करता है, किसी को भूख ज्यादा लगती है, उस हिसाब से अपनी-अपनी खुराक होती है। फिर भी यथाशक्ति इसका पालन होना चाहिए, ऐसा जैन धर्म का मन्तव्य है। अगर इन चार प्रकार की तपस्याओं को व्यक्ति अपना ले तो शायद चिकित्सा की जरूरत भी न रहे ! धर्मशास्त्रों में एक गाथा आती है "हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा, न ते विज्जा तिगिच्छति अप्पाणं ते तिगिच्छगा ॥ इसका भावार्थ है, जो हितभोजी और परिमितभोजी होते हैं उनको वैद्यों की जरूरत नहीं रहती क्योंकि वे स्वयं ही चिकित्सक होते हैं । महर्षि चरक ने भी इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। चिकित्सा विज्ञान भी भोजन सम्बन्धी भगवान महावीर के निर्देषों को सत्य प्रमाणित करता है। वैज्ञानिकों ने अनेक प्रयोगों द्वारा इस तथ्य को सिद्ध कर दिया है कि कम खाना और गरिष्ठ भोजन न करना स्वास्थ्य सुरक्षा व चिरयौवन के लिए उपयोगी है। टेक्सास विश्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003142
Book TitleBat Bat me Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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