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________________ जातिवाद की अतात्त्विकता १६१ यात्रा कर रहे 1 मनोहर - एक बार की बात है कि आचार्य कृपलानी रेल में थे । डिब्बे में एक भद्र महिला उनके पास बैठी थी। उसे महिला ने कृपलानीजी से पूछ लिया- श्रीमन् ! आप किस जाति से हैं । कृपलानी जी एक क्षण सोचकर बोले- बहिन ! मैं जब सुबह उठता हूं तो हरिजन जाति का होता हूं, फिर ब्राह्मण जाति का फिर वैश्य जाति का और रात के समय क्षत्रिय जाति का होता हूं। बहिन असमंजस में पड़ गई उसने अपनी जिज्ञासा शांत करने हेतु फिर पूछामहोदय ! मैं कुछ नहीं समझ सकी, आप बात को जरा स्पष्ट करें । कृपलानी ने कहा-सुनी बहिन ! सुबह उठते ही मैं अपने शरीर की शुद्धि करता हूँ, उस समय मैं एक हरिजन होता हूँ । शरीर शुद्धि के बाद मैं पूजा पाठ में बैठता हूँ, उस समय मैं एक ब्राह्मण बन जाता हूँ । पूजा पाठ के बाद नाश्ता व आवश्यक काम सम्पन्न करके मैं व्यवसाय में लग जाता हूँ, उस समय में एक वैश्य होता हूँ । रात को मैं अपने घर की सुरक्षा का दायित्व संभालता हूँ, उस समय मैं क्षत्रिय होता हूँ । इस तरह चारों ही जातियां मेरे में सन्निहित है। कृपलानी का यह जीवन प्रसङ्ग कितना हृदयस्पर्शी है । दूसरी बात खानपान - अशुद्धि की तूने जो कही, उसे भी समझ लो । क्या हरिजनों में ही खानपान की अशुद्धि होती है, अन्य जातियों में नहीं ! तुम अपने आस पास नजर उठाकर तो देखो, अपने मित्रों व सम्बन्धियों को भी देखो, वहां भी तुमको कहीं न कहीं यह बुराई दिखाई देगी। हरिजनों में भी कई ऐसे मिलेंगे जो खान-पान को शुद्ध रखते हैं । फिर भी, क्या इस अवगुण के होने से कोई भी व्यक्ति घृणा के लायक बन जाता है। ठीक है, तुम उससे दोस्ताना सम्बन्ध मत रखो किन्तु उसे मानवता के अधिकार से भी वंचित करो, उसे मनुष्यों के बीच भी न आने दो, यह कहाँ तक उचित कहा जा सकता है ! इस सत्य को मत भूलो कि कुलीन या उच्च जाति में उत्पन्न होने से सब का खान-पान शुद्ध हो. जरूरी नहीं है व हरिजन जाति में जन्म लेने वालों का सबका खान-पान अशुद्ध हो, जरूरी नहीं । नन्द - आपके विचार मन को झकझोरने वाले हैं फिर भी क्या कारण है कि हरिजनों के प्रति मन में भातृत्व का भाव नहीं जागता ! मनोहर - उसमें दोष तुम्हारा भी नहीं है। दोष है उस परम्परा का जहां हरिजनों को आज तक हीनता की दृष्टि से देखा गया। एक समय था जब कहा जाता था कि शूद्रों को पढ़ने का अधिकार नहीं है । उनके ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003142
Book TitleBat Bat me Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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