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निक्षेपवाद
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विशेष में अर्थ की स्थापना करना असदभाव स्थापना है। जैसेराम या महावीर को देखा तो नहीं, किन्तु अपनी कल्पना से उनकी प्रतिमूर्ति बनाकर उसे राम या महावीर कहना । अध्यात्म की दृष्टि से नाम निक्षेप की तरह स्थापना निक्षेप भी गुणशून्य है। क्योंकि गुणों का आधार जीवित व्यक्ति ही हो सकता है। प्रतिमा और फोटो को देखकर हमें उस व्यक्ति की स्मृति हो
सकती है, किन्तु वह स्वयं में गुणरहित है। रमेश-तब तो बहुत बड़ा मिथ्यात्व जैन धर्म के अनुयायियों में पल रहा है। अहंत कुमार-कौन-सा ? रमेश-आपके कथनानुसार जितनी भी प्रतिमाएँ है, वे सब स्थापना मिक्षेप
है चाहे फिर वे किसी देव या भगवान की हो। अहंत कुमार-सही कह रहे हो। रमेश जैन धर्म के बहुत सारे अनुयायी रोज सबेरे मंदिर में जाते है। वहां
प्रतिमाओं के आगे सिर झुकाकर वंदना करते है और मन में समझते है, हमने भगवान के दर्शन कर लिये। क्या यह जैन धर्म के सिद्धांतों
के प्रतिकूल नहीं है ! अहंत कुमार-उचित है तुम्हारी लिज्ञासा। जैन धर्म में दोनों तरह की
परम्पराएँ है, कुछ प्रतिमा की पूजा करते हैं तो कुछ प्रतिमा को सिर्फ
स्मृति का साधन मात्र मानते हैं। रमेश तो क्या प्रतिमा को भगवान मानकर पूजने वाले सब गलत कर
अहंत कुमार-वे गलत या सही करते हैं, इसका निर्णय तुम स्वयं कर सकते
हो । बाकी इसे तो सब स्वीकार करते है कि पूजा गुणों की होती है, किसी व्यक्ति या वस्तु की नहीं। प्रतिमा पूजा के पीछे उन लोगों का स्वतंत्र चिन्तन या प्रवाहपातिता भी हो सकती है। यह तो तुम समझ गये होंगे कि भगवान और भगवान की फोटो या प्रतिमा दो
है, एक नहीं। महावीर-बात तो समझ में आ गयी फिर भी कहानी से आप बात को सम
झायें तो और भी सुगमता रहेगी। अहंत कुमार-अवश्य । एक शहर में एक परिवार रहता था। परिवार के
सभी सदस्य प्रतिदिन मंदिर में जाकर प्रतिमा की पूजा किया करते थे। सबसे बड़े लड़के का विवाह हुआ। कन्या जो घर में बहु बनकर आयी थी, वह मंदिर जाने व प्रतिमा पूजा में विश्वास नहीं
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