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________________ गुणस्थान EE इसका अर्थ बोध हो जाता है । स, आ और स्वादन मिलकर सास्वादन शब्द बना है। स से सहित, आ से ईषद यानी थोड़ा सा मिठास । पूरे शब्द का अर्थ हुआ सम्यक्त्व का थोड़ा-सा मिठास रह गया है जिस जीव में उसका गुणस्थान । इस श्रेणी का व्यक्ति उपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर जब तक पहले गुणस्थान में नहीं आ जाता तब तक उसमें दूसरा गुणस्थान पाया जाता है। वृक्ष से फल गिरा और धरती पर पड़ा नहीं, ऐसी मध्यवर्ती स्थिति से इस गुणस्थान की तुलना की जा सकती है। तीसरा गुणस्थान--मिश्र गुणस्थान । एक तत्त्व में या तत्त्वांश में सन्देह रखने वाले व्यक्ति में मिश्र गुणस्थान पाया जाता है । यह आत्मा. की दोलायमान अवस्था है। पहले गुण-स्थान में दृष्टि-एकांत मिथ्या होती है, तीसरे में दृष्टि संदिग्ध होती है, इतना-सा दोनों में अन्तर है। इन दोनों अवस्थाओं को हम यों समझ सकते है-एक व्यक्ति दूर खड़ा है उसको देखकर मन में विचार आता है कि वह खम्भा है, यह विपर्यास और एकान्त मिथ्या भाषा है। दूसरे के मन में आता है कि पता नहीं आदमी है या खम्भा, यह है संदेह की अवस्था । चौथा गुणस्थान-अविरत सम्यग दृष्टि गुणस्थान। इस श्रेणी के व्यक्ति में सम्यक्त्व पायी जाती है किन्तु किसी प्रकार का व्रत उसमें नहीं होता। इस गुणस्थान में प्रवेश पाते ही जीव में मोक्ष गमन की अहंता आ जाती है। व्यक्ति को शरीर और आत्मा की भिन्नता का बोध होने लग जाता है। वह दस प्रकार के मिथ्यात्व जाल में नहीं फंसता। उसमें हेय और उपादेय का विवेक जग जाता है। नौ तत्त्व व षट् द्रव्य का पूरा ज्ञान उसे हो जाता है । ज्ञ प्रज्ञा परिपूर्ण होने पर भी प्रत्याख्यान प्रज्ञा का उसमें तनिक भी विकास नहीं होता। इसी कारण उसमें व्रत स्वीकार करने की क्षमता नहीं होती। विमल-यह ज्ञ प्रज्ञा और प्रत्याख्यान प्रज्ञा क्या है ? मुनि-प्रज्ञा के दो प्रकार शास्त्रों में बताये गये हैं १. ज्ञ प्रज्ञा २. प्रत्याख्यान प्रज्ञा । व्यक्ति ज्ञ प्रशा से जानता है और प्रत्याख्यान प्रज्ञा से जो हेय और अकरणीय है उसे छोड़ता है। चौथे गुणस्थान का स्वामी जानता सब कुछ है किन्तु आचरण की क्षमता, त्याग की प्रवृत्ति उसमें नहीं होती। विमल-आश्चर्य ! सब कुछ जानता हुआ भी वह त्याग नहीं कर सकता। मुनिवर ! इसका क्या कारण है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003142
Book TitleBat Bat me Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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