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________________ बात-बात में बोध गुणस्थान में लिया जाता है। अगर सही समझ का बिलकुल अभाव हो तब तो जीव और अजीव में अन्तर ही नहीं रहेगा। विमल-तो क्या जैन धर्म संसार के हर प्राणी में आत्म विकास की अर्हता को ___ स्वीकार करता है ! मुनि-हाँ स्वीकार करता है। व्यक्ति चाहे किसी भी जाति, वर्ण या धर्म का हो उसमें एक सीमा तक आत्म विकास तो होगा ही। उसके इसी गुण के आधार पर उसे पहली श्रेणी में स्थान मिला है। जैन धर्म ने तो उसकी तपस्या, साधना, सेवा व सात्त्विक भावना को मोक्ष के अभिमुख होने का साधन बताया है। उसके भी कर्मों की उज्ज्वलता होती है । वह भी कालान्तर में सम्यक्त्व प्राप्त कर मोक्ष का अधिकारी बन सकता है। यह जैन धर्म की उदारता है कि उसने प्राणी मात्र में विकास की सम्भावना को देखा है। कमल-पर एक बात समझ में नहीं आती कि मिथ्याटष्टि व्यक्ति में कई बातों की सही समझ होने पर भी वह मिथ्यादृष्टि क्यों माना जाता है ? मुनि-तुम्हारा प्रश्न उचित है। किसी भी व्यक्ति या वस्तु की पहचान उसके लेबल से होती है। घृत शुद्ध होने पर भी अगर वह डालडा के पीपे में है तो सब कोई उसे डालडा के रूप में पहचानेंगे। हरे रंग की बोतल में रखा हुआ पानी देखने में हरा नजर आयेगा। गन्दी नाली में पड़ा साफ पानी भी अपेय माना जायेगा। ठीक वैसे ही तत्त्वों में विपरीत श्रद्धा रखने वाला व्यक्ति सही ज्ञान होने पर भी मिथ्याष्टि कहलायेगा। एक कारण और है-तीव्र मोहनीय कर्म का उदयभाव। मिथ्या दृष्टि व्यक्ति में ज्ञानावरणीय कर्म का अच्छा क्षयोपशम हो सकता है पर अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क व दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों (सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय व मिश्र मोहनीय) के प्रबल उदय के कारण वह व्यक्ति विद्वान होते हुए भी मिथ्यादष्टि बना रहता है। कमल-मुनिवर ! अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क-का क्या अर्थ है ? मुनि-क्रोध, मान, माया और लोभ का ऐसा अनुबन्ध जिसका कहीं अन्त नहीं। ऐसी गांठ जो कभी खुलती नहीं। कपड़े का ऐसा धब्बा जो कभी साफ नहीं होता, कपड़ा भले ही फट जाये। कषाय की यह तीव्र उदयावस्था जीव को भव-भव में भटकाने वाली होती है। दूसरा गुणस्थान है-सास्वादन सम्यग् दृष्टि गुणस्थान । नाम से ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003142
Book TitleBat Bat me Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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