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________________ पुनर्जन्म ८७ परमकारुणिक हैं, जनता को भ्रान्त करने के लिए कभी कुछ नहीं कहते । जो सुख हमें प्राप्त है उससे भी बहुत ज्यादा सुख हम पा सकते हैं अगर उन परमपुरुषों के दिखलाये राजमार्ग पर चलने के लिए कदम उठाये । महेन्द्र -खैर, आपको त्याग अच्छा लगा, आपने इसे स्वीकार किया और जिनको भोग अच्छा लगता है वे उसे स्वीकार करते हैं। अपने-अपने . स्वतंत्र विचार हैं। मेरा ब्यक्तिगत इसमें कोई रस नहीं है। मुनिराज-तुम्हारा चिन्तन सिर्फ शरीर केन्द्रित है इससे आगे भी एक परमतत्त्व है जिसको तुमने जाना तक नहीं। महेन्द्र-जो कुछ दिखता है उसी पर विश्वास किया जा सकता है। अदृश्य को कैसे मान लिया जाए ? मुनिराज-संसार में बहुत सारी चीजें ऐसी हैं जो अदृश्य हैं, तुम्हारे लिए परोक्ष हैं, क्या तुम उनको इन्कार कर दोगे ? तुम्हारे दादा, परदादा आदि तुम्हारे लिए अदृश्य हैं, क्या तुम कह दोगे कि मैं पुरग्बों को नहीं मानता ? भारत देश और उसका भी बहुत थोड़ा हिस्सा तुमको ज्ञात है, क्या अज्ञात भूखण्ड को तुम नकार दोगे? सूर्य के प्रकाश में नक्षत्र, तारामण्डल, ग्रह दिखाई नहीं देते, क्या तुम उनकी सत्ता को इन्कार कर दोगे? महेन्द्र-परोक्ष होने पर भी वहां तक बुद्धि की पहुंच है इसलिए उनको इंकार नहीं किया जा सकता। पर जो तथ्य बुद्धि से परे हैं उन पर कैसे विश्वास किया जा सकता है ? संतोष-महाराज ! यह बड़ा तर्कबाज है। जल्दी से कोई बात स्वीकार नहीं करता। मुनिराज-यही तो कठिनाई है, जो बात परमज्ञानियों ने प्रज्ञा के सर्वोच्च शिखर को छुकर बतलाई उसे यह अपनी तुच्छ बुद्धि से समझने की चेष्टा कर रहा है, यह केसे सम्भव हो ? फिर भी महेन्द्र ! एक बात बताओ, दुनिया के बहुत-से नियम ऐसे हैं जो तुम्हारी बुद्धि में नहीं पैठते, क्या तुम उनको इन्कार कर दोगे? क्या जो कुछ भी जानने योग्य है वह सब तूंने बुद्धि से जान लिया, कुछ भी बाकी नहीं रहा ! महेन्द्र-मैं स्वयं के परम बुद्धिमान होने का दावा तो नहीं करता फिर भी अपने को बुद्धिहीन भी नहीं मानता। लाखों-करोड़ों व्यक्ति आत्मापरमात्मा, स्वर्ग-नरक को नहीं मानते, वे सब मुर्ख तो नहीं है। बाप इन सब बातों को प्रत्यक्ष ज्ञानियों द्वारा बतायी हुई और अनुभवगम्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003142
Book TitleBat Bat me Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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