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वस्तु, अनुभूति और अभिव्यक्ति
वस्तु और हम
इस संसार में यदि केवल हम ही होते, तो हमारे लिए कोई समस्या नहीं होती। हमन होकर केवल अन्य वस्तुएं ही होतीं, तो भी कोई समस्या नहीं होती। हम और वस्तुएं—दोनों होने पर भी यदि हमारे अन्दर किसी प्रकार की चेतना या जिज्ञासा नहीं होती, तो भी समस्या का अस्तित्व नहीं होता। परन्तु हम हैं, हमारे सदृश या विसदृश अन्य अनेक वस्तुएं हैं, इसी प्रकार हमारी चेतना या जिज्ञासा भी है और इसीलिए अनेकानेक समस्याएं भी हैं।
अनन्त गुणों और अनन्त पर्यायों के पिण्ड को वस्तु कहा जाता है। गुणसहभावी धर्म, अर्थात् वह स्वभाव, जो वस्तु से कभी पृथक् नहीं होता। पर्यायक्रमभावी धर्म, अर्थात् वह स्वभाव, जो वस्तु में ऋमिकता से प्राप्त होता है और उसे पौर्वापर्य—अवस्थान्तर प्रदान करता है। ऐसी वस्तु हमारी जिज्ञासा के लिए इसलिए एक समस्या बन जाती है कि उसमें 'अर्ध नारीश्वर' की तरह अनश्वरता
और नश्वरता या फिर अपरिवर्तनशीलता और परिवर्तनशीलता के रूप में विभिन्न विरोधी धर्मों का एक विचित्र सहावस्थान है। बहिरंग से वह एक प्रकार की ज्ञात होती है, तो अन्तरंग से बिल्कुल दूसरे प्रकार की।
इन विपरीतताओं का समाधान हमें वस्तु के लिए नहीं, स्वयं अपने लिए, अपनी जिज्ञासा की समाधि के लिए आवश्यक है। अन्य वस्तुओं के लिए ही क्यों कहा जाए, हमारी चेतना के सम्मुख हम स्वयं भी तो एक उसी कोटि की वस्तु हैं। यह कितनी विचित्र बात है कि हम स्वयं अपने आपके लिए कुछ प्रकाश में हैं और कुछ अंधकार में । दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि हम स्वयं अपने आपसे कुछ परिचित और कुछ अपरिचित-दोनों हैं।
अपूर्ण अनुभूति जिज्ञासा की उत्प्रेरणा से हम स्वयं को जानना चाहते हैं और उतनी ही उत्कण्ठा
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