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________________ जयपुर के प्रमुख तेरापंथी श्रावक १६५ ३. रामचन्दजी कोठारी रामचन्दजी कोठारी का जन्म सं० १८५० के आसपास हुआ । सं० १८८५ में अग्रणी अवस्था में जयाचार्य का जयपुर चातुर्मास हुआ । उसमें ५२ व्यक्तियों ने तत्त्व को समझकर श्रद्धा ग्रहण की। उनमें रामचन्दजी भी एक थे। धीरे-धीरे वे एक त्यागी, विरागी एवं दृढ़धर्मी श्रावक बन गये । वे एक निपुण व्यापारी भी थे । जयपुर, आगरा, बोलपुर और कलकत्ता आदि नगरों में उनके भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यापार थे । एक बार वे किसी परिस्थितिवश शंकाशील बन गये और आना-जाना तथा वंदन-व्यवहार छोड़ दिया। कुछ समय पश्चात् ही सं० १६०७ के शेषकाल में युवाचार्य जय का वहां पदार्पण हो गया। उन्होंने जब सुना कि रामचन्दजी काशील हो गये हैं तो उन्होंने उनसे बातचीत की और उनकी शंकाओं का समाधान कर दिया। वे पुनः पूर्ववत् आने लगे । उन्होंने जयाचार्य का बड़ा उपकार माना कि वे यदि उनकी शंकाओं को नहीं मिटाते तो उनके विराधक हो जाने की सम्भावना थी । उसके बाद वे आजीवन एक जागरूक श्रावक रहे । Jain Education International ४. भैरूलालजी सींधड़ भैरूलालजी सींधड़ जयाचार्य के अनन्य भक्त श्रावकों में गिने जाते थे । वे जयपुर के प्रथम श्रावक हरचन्दलालजी के पौत्र थे । वे अपने दादा के समान ही व्यापार कुशल एवं नीति निपुण व्यक्ति थे। जयाचार्य के समवयस्क होने के कारण उनके प्रति उनकी सहज घनिष्ठता हो गयी । जयाचार्य उनसे परामर्श भी किया करते थे। कहा जाता है कि युवाचार्य जय ने सं० १९०४ में चातुर्मास किया तभी भैरूलालजी ने उनसे वचन ले लिया था कि आचार्य बनने के पश्चात् प्रथम चातुर्मास उन्हें ही देंगे । यही कारण था कि आचार्य बनते ही जयाचार्य थली के सब नगरों को छोड़कर चातुर्मास हेतु जयपुर पधारे। इसी प्रकार वृद्धावस्था में जयपुर की ओर प्रस्थान करने में भी भैरूलालजी की प्रार्थना ही कारणभूत बनी । फलतः सं० १६३७ एवं ३८ के दो चातुर्मास जयपुर को प्राप्त हुए । भैरूलालजी बड़े सेवापरायण व्यक्ति थे । वे प्रतिवर्ष जयाचार्य की सेवा में जाते और महीने - दो महीने से लेकर छः-छः महीनों तक की सेवा करते थे । घर में जिस ठाठ-बाट से रहते उसी ठाठ से वे सेवा में भी रहते थे । अनेक नौकर उनके साथ रहते । विहारों में सेवा का अवसर होता तब वे ठहरने के लिए तम्बू भी साथ रखते थे । यहां तक कि गायें भी उनके साथ रहती थीं। तरह-तरह का दूध पीने के वे अभ्यस्त नहीं थे । एक बार जयाचार्य भैरूलालजी की हवेली में विराज रहे थे। जयपुर नरेश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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