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उस समय के मुनि नथमल : आज के युवाचार्य महाप्रज्ञ १८१ जिज्ञासापूर्वक उस श्लोक के लिए पूछते रहे । उन सबकी जिज्ञासा को हम दोनों ने हंसकर टाल दिया। शायद तब उपयुक्त भी यही था ।
इस पड़ाव पर आचार्यश्री तुलसी ने सं० २००० का चातुर्मास करने के लिए मुझे अग्रणी बनाकर श्रीडूंगरगढ़ भेज दिया। उसके पश्चात धीरे-धीरे मुझे बहिविहारी ही बना दिया गया। तभी से हम दोनों के कार्यक्षेत्रों में पार्थक्य प्रारम्भ हो गया। मुनि श्री नथमलजी को आचार्यश्री के सामीप्य का निरन्तर लाभ प्राप्त होता रहा, मुझे वह नहीं मिल पाया। पैंतीस वर्षों के इस प्रलंब बहिविहार-काल में मैंने जीवन की दुर्गम घाटियों के अनेक उतार-चढ़ाव पार किए हैं। आज जिस पड़ाव पर खड़ा हूं, वहां से पूरे अतीत को बहुत स्पष्टता से देख रहा हूं। विगत का पूरा लेखा-जोखा मेरे मस्तिष्क में अंकित है। उसके पृष्ठ उलटता-पलटता हूं तो पाता हूं कि बाल-सखा मुनि नथमलजी युवाचार्य महाप्रज्ञ बनकर भी आज मेरे वही निकटतम साथी हैं। यात्रा-मार्ग और पड़ावों की दूरियां हमारे सख्य में कोई बाधा उपस्थित नहीं कर पाई हैं।
नया मोड़ आ रहा है आचार्यश्री तुलसी ने मुनि नथमलजी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। चारों ओर वातावरण में एक हर्षोत्फुल्लता छा गई। मैंने एक अतिरिक्त आह्लाद
और गौरव का अनुभव किया । दूसरे दिन प्रातः प्रतिलेखन आदि कार्यों से निवृत्त होकर बैठा ही था कि अचानक युवाचार्यश्री मेरे कमरे में प्रविष्ट हुए। मैंने उठकर उनका स्वागत किया और आने का कारण पूछा। उन्होंने कहा--"तुम तो मेरे साथी हो, साथी के लिए आया हूं।" उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और कहा- “चलो आचार्यश्री के पास चलें।" मैं उनके साथ गया तो आचार्यश्री ने उस स्थिति पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए जो कुछ कहा, वह मुझे गद्गद कर गया। उसी दिन प्रातः कालीन व्याख्यान में युवाचार्य का अभिनन्दन करते हुए मैंने उक्त घटना का उल्लेख किया तो उत्तर देते समय युवाचार्य ने मेरी बात को छूते हुए कहा-“साथी तो साथी ही रहता है।" मैंने अनुभव किया, संस्मरणों के प्रवाह में अवरोध नहीं, एक नया मोड़ आ रहा है।
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