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उस समय के मुनि नथमल : आज के युवाचार्य महाप्रज्ञ १७६
हमने उसे पूरा समझ लिया। कुछ समय पश्चात् जब थोड़ा-सा मिल-बैठने का समय मिला तब हमने उस दोहे को फिर से स्मरण किया। उसके अर्थ पर भी ध्यान दिया । हमने समझा था कि भगवान्, गुरु, जनता और अपनी क्रियाओं का भय रखना जितना आवश्यक है उतना ही मुनि तुलसी से डरना भी आवश्यक है। इस कार्य में सावधान व्यक्ति मार खा जाता है । हमारी बाल सुलभ कल्पना में उक्त 'तुलसी' नाम किसी कवि का न होकर हमारे अध्यापक मुनि तुलसी का ही था । हम समझे थे कि आचार्य श्री कालूगणी हमें बतलाना चाहते हैं कि तुलसी से डरते रहना ही तुम्हारे लिए श्रेयस्कर है । हमारा वह अर्थदान दोहे के परिप्रेक्ष में चाहे जैसा रहा हो, परन्तु परिपूर्ण आचरणीय होकर हमारे लिए तो वह नितान्त गुणदायक ही रहा ।
प्रारम्भिक कठिनाइयां
मुनि तुलसी के पास हमारा अध्ययन नियमित और सुचारु चलता था । उस समय तक संघ में शिक्षण की कोई निश्चित पद्धति या परम्परा नहीं थी । कंठस्थ कर लेना ही अध्ययन का प्रमुख अंग था। उससे आगे बढ़ने पर व्याकरण की साधना कर ली जाती थी । शब्द सिद्धि के ज्ञान पर इतना बल रहता कि शब्द-प्रयोग की दिशा प्रायः अस्पष्ट ही रह जाती । हमने अभिधान चितामणि शब्द कोश कंठस्थ कर लेने के पश्चात् समग्र कालुकौमुदी कंठस्थ की और उसकी साधनिका की । कालुकौमुदी का शिक्षण हमारे लिए बड़ा कठिनाइयों से भरा रहा । कारण यह था कि उसके निर्माण और हमारे शिक्षण की सम्पन्नता प्रायः साथ ही हुई । इसलिए निर्माण-काल की कांट-छाट का झंझट सदा हमारे शिक्षण को अस्त-व्यस्त करता रहा । आये दिन हमें कंठस्थ किए हुए पाठ छोड़ देने पड़ते और उनके स्थान पर नये पाठ कंठस्थ करने पड़ते ।
आज यह बात शायद आश्चर्यजनक ही प्रतीत होगी कि हमने न कभी शब्द रूपावलि सीखी और न धातु रूपावलि, यहां तक कि वाक्य बनाने का अभ्यास भी नहीं किया । शब्द प्रयोग के लिए हमने सर्व प्रथम संस्कृत के पद्य निर्माण में प्रवेश किया। संस्कृत में भाषण तथा गद्य लेखन का अभ्यास तो उसके बाद ही किया गया ।
विषय बदले
बाल्यावस्था से किशोरावस्था में पहुंचने पर हमारी स्पर्धा के विषय बदल गये । सं० १९६१ के जोधपुर चातुर्मास में हमने राजस्थानी भाषा में प्रथम काव्य-रचना की । १६६४ के बीकानेर चातुर्मास में संस्कृत भाषा में प्रथम काव्य-रचना की । उसके पश्चात् क्रमशः संस्कृत-भाषण, गद्य लेखन और आशुकविता आदि अनेक विकास
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