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उतना अमूर्त चिंतन को नहीं देते। परमार्थ का सूर्य प्रातः स्वार्थ के बादलों से ढका रहता है। जिन मनुष्यों ने तमस् से ज्योति की ओर प्रस्थान किया अथवा जो लोग उस दिशा में प्रस्थान करना चाहते हैं, उनके लिए मूर्त से अमूर्त की ओर जाना अनिवार्य है। उस अनिवार्यता को प्रस्तुत प्रस्तक में आकार दिया गया है।
इस पुस्तक के संकलन में समणी स्थितप्रज्ञा ने बहुत श्रम किया है। अनेक पुस्तकों में बिखरे हुए विषयों को संकलित कर एक उपयोगिता निर्मित की है। विभिन्न कारणों से मानसिक कठिनाइयां भुगतने वाले लोगों के लिए यह एक समाधान है और जो मानसिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य बनाए रखना चाहते हैं, उनके लिए यह एक संजीवन है। मुनि दुलहराजजी ने इसका संपादन कर प्राचीन परंपरा से प्राप्त अनुप्रेक्षा को नए संदर्भ में संजोया है। इससे पाठक को बहुत आश्वासन मिल सकेगा।
__ आचार्य श्री तुलसी ने प्रेक्षाध्यान के प्रति अपनी जो तन्मयता प्रगट की है, जिस प्रकार जन-जन को उसकी ओर मोड़ने का प्रयत्न किया है, उसकी सार्थकता सिद्ध होगी और उनका सार्थक आशीर्वाद जन-जन तक पहुंच सकेगा।
८ जनवरी, १९८८ अनुव्रत भवन नई दिल्ली-१
--आचार्य महाप्रज्ञ
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