________________
संवर भावना
भेदविज्ञानतो सिद्धा:, सिद्धा ये किल केचन। तस्यैवाभावत: बद्धाः, बद्धा ये किल केचन ।।
इस संसार में वे ही लोग कर्म से बद्ध हैं जिनमें भेदविज्ञान का अभाव है। आत्मा की उपलब्धि उन्हीं व्यक्तियों को हुई है जिनका भेद-विज्ञान सिद्ध हो गया, अचेतन से चेतन की भिन्न सत्ता अनुभव में आ गई।
मूल आत्मा और उसके परिपार्श्व में होने वाले वलयों का भेद-ज्ञान जैसे-जैसे स्पष्ट होता चला जाता है, वैसे-वैसे कर्म बंधन शिथिल होता चला जाता है। जिन्हें भेद-ज्ञान नहीं होता, मूल चेतना और चेतना के वलयों की एकता की अनुभूति होती है, उनका बन्धन तीव्र होता चला जाता है। कर्म पुद्गल अचेतन है। अचेतन चेतन के साथ एकरस नहीं हो सकता है। हमारी कषाय आत्मा ही कर्म-शरीर के माध्यम से उसे एकरस करती है। मुक्त आत्मा के साथ पुद्गल एकरस नहीं होता, क्योंकि उसमें केवल शुद्ध चैतन्य की अनुभूति होती है। शुद्ध चैतन्य की अनुभूति के क्षण कर्म शरीर की विद्यमानता में 'संवर'-कर्म पुद्गलों के सम्बन्ध को रोकने वाला और उस (कर्म-शरीर) के अभाव में आत्मा का स्वरूप होता है। कषाय-मिश्रित चैतन्य की अनुभूति का क्षण आस्रव है। वह कर्म पुद्गलों को आकर्षित करता है। यहां जातीय सूत्र कार्य करता है। सजातीय सजातीय को खींचता है। कषाय चेतन की परिणतियां पुद्गल मिश्रित हैं। पुद्गल पुद्गल को टानता है। यह तथ्य हमारी समझ में आ जाये तो हमारी आत्म-साधना की भूमिका बहुत सशक्त हो जाती है। हम अधिक-से-अधिक शुद्ध चैतन्य के क्षणों में रहने का अभ्यास करें, जहां कोरा ज्ञान हो, संवेदन न हो। यह साधना की सर्वोच्च भूमिका है। इसीलिए जैन आचार्यों ने ध्यान के लिए 'शुद्ध उपयोग' शब्द का प्रयोग किया है। 'शुद्ध उपयोग' अर्थात् केवल चैतन्य की अनुभूति ।
प्रत्याख्यान से संयम की चेतना जागृत हो जाती है। संयम की चेतना से अपने आप में लीन रहने की बात प्राप्त हो जाती है। मन भीतर की खूटी से बंध जाता है। मन चैतन्य के शांत सागर में डुबकियां लगाने लग जाता है। मन ज्योतिपुंज के प्रकाश में इतना आकर्षण देखता है कि अब वह बाहर के अंधेरे में जाना पसन्द नहीं करता, भीतर ही रहना चाहता है। ऐसी स्थिति में एक भीषण संघर्ष खड़ा हो जाता है। भीतर के आस्रव, भीतर की वृत्तियां,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org