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________________ आत्मानुशासन अनुप्रेक्षा २३९ चाहिए। आत्म-सम्मोहन का एक कथन है-ज्ञान एक शक्ति है। ज्ञान जब स्पष्ट हो जाता है, तब आचरण की सुविधा हो जाती है। स्वभाव परिवर्तन का चौथा सूत्र है-ध्यान। दर्शन-केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित करें। दोनों भृकुटियों के बीच का स्थान है-दर्शन-केन्द्र। यह हमारे अन्तर-ज्ञान का केन्द्र है। यह अन्तर्दृष्टि और सम्यग-दृष्टि का केन्द्र है। जितना आन्तरिक ज्ञान प्रकट होता है, वह इसी केन्द्र से प्रकट होता है। जब ध्यान दर्शन-केन्द्र पर स्थापित होता है, तब अपनी बात को भीतर तक पहुंचाने में बड़ी सुविधा हो जाती है। मनोविज्ञान मानता है कि जो बात हमारे स्थूल मन तक पहुंचती है, वह कार्यकर नहीं होती। उससे व्यक्तित्व का परिवर्तन नहीं हो सकता। जब हम दर्शन-केन्द्र पर ध्यान करते हैं तब हमारा विचार, हमारा संकल्प अन्तर्मन तक पहुंच जाता है। वह संकल्प लेश्या-तंत्र और अध्यवसाय-तन्त्र तक पहुंच जाता है। परिवर्तन घटित होने लगता है। दर्शन केन्द्र पर ध्यान करना चौथा चरण है। स्वभाव-परिवर्तन का पांचवा सूत्र है-शरण। हमें शरण में जाना होगा। आत्म-सम्मोहन के वर्तमान सिद्धान्त में शरण की बात नहीं मिलती। वहां आत्म-शिथिलीकरण, आत्म-विश्लेषण और ऑटो-सजेशन की बात मिलती है, स्वत:सूचना की बात मिलती है। किन्तु शरण की बात नहीं मिलती। शरण में जाना बहुत महत्त्व का सूत्र है। प्रश्न है-किसकी शरण में जाना ? और किसी दूसरे की शरण में जाने की जरूरत नहीं है, अपनी ही शक्ति की शरण में जाना है या हमें उसकी शरण में जाना है। जो अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-आनन्द और अनन्त-शक्ति का धनी है। जिसके ये चारों अनन्त प्रस्फुटित हो चुके हैं, उसकी शरण में जाना है। जिसमें ये बीज अंकुरित हो चुके हैं, पल्लवित, पुष्पित और फलित हो चुके हैं, उसकी शरण में जाना है। किसी व्यक्ति विशेष की शरण में नहीं जाना है। इस अनन्त-चतुष्टयी की शरण में जाना है। जब यह शरण उपलब्ध हो जाती है तब तैजस शक्ति का विकास होता है। उस समय विद्युत् की इतनी तीव्र तरंगें उपलब्ध होती हैं कि रूपान्तरण का क्रम आरम्भ हो जाता है। संवेग-नियन्त्रण की पद्धति जिस व्यक्ति का अपनी संवेदनाओं पर नियंत्रण होता है वह बहुत आगे बढ़ जाता है। जिसमें नियंत्रण की पूरी क्षमता नहीं होती है, एक सीमा तक होती है, वह मूल स्थिति में कायम रह जाता है। जो संवेदनाओं का दास बन जाता है वह अपने जीवन की दुर्गति कर बैठता है। उसका अध:पतन होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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