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________________ २३० अमूर्त चिन्तन होता है, इसलिए उसमें आत्मानुशासन का मूल्य बढ़ जाता है। हिन्दुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र है। उसके नागरिकों का आत्मानुशासन कैसा है, इस प्रश्न पर चाहे-अनचाहे दृष्टि जा टिकती है। इसका उत्तर जो मिलता है, वह सन्तोष नहीं देता। शासनतन्त्र के प्रमुख लोगों में सर्वाधिक आत्मानुशासन होना चाहिए, पर वह नहीं है। वे अपने पद का लाभ भी उठाते हैं। पक्षपात की भी उनमें कमी नहीं है। अपने कृपा-पात्रों के लिए वे कुबेर हैं तो अप्रियजनों के लिए अनुदार भी कम नहीं हैं। वे शासनतंत्र संभालते हैं जनता की भलाई के लिए और उनका संघर्ष चलता है सदा कुर्सी की सुरक्षा के लिए। आर्थिक घोटालों के अनेक आरोप उन पर लगाए जाते हैं और वे प्रमाणित भी हो जाते हैं। . आत्मानुशासन की जन्मभूमि है शिक्षा-संस्थान । वहां राष्ट्र की नयी पौध का निर्माण होता है। उसकी स्थिति भी स्वस्थ नहीं है। वहां विलास, फैशन और स्वच्छन्दता का इतना प्रबल अस्तित्व है कि आत्मानुशासन की एक अस्फुट रेखा भी नहीं दिखाई देती। धर्म का क्षेत्र आत्मानुशासन का मुख्य क्षेत्र है। परन्तु स्वार्थों का संघर्ष वहां भी अपनी जड़ें जमा चुका है। इसलिए उसकी तेजस्विता भी संदिग्ध हो चुकी है। एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि एक साधु कहता है, मेरा नाम पहले क्यों नहीं आया ? उसका पहले क्यों आया ? कोई कहता है, प्रमुख मैं हूं, उसे प्रमुखता क्यों दी गई ? इस वातावरण में आत्मानुशासन की गंध ही कहां है ? उस स्थिति का प्रत्यक्ष दर्शन है। इसके द्रष्टा अनेक लोग हैं, हम द्रष्टा रहकर स्थिति को नहीं बदल सकते। उसमें अपने संयम की आहुति देकर ही बदल सकते हैं। आज यह बहुत अपेक्षित है कि सब लोग आत्मानुशासन का संकल्प लें और जन-जन को यह समझाएं कि स्वतन्त्रता का अर्थ है आत्मानुशासन का विकास । शिक्षा और भागत्मक परिवर्तन साम्यवादी प्रणाली में व्यक्तिगत नियन्त्रण पर बहुत ध्यान दिया गया। पर आदमी बदला नहीं। जब तक हमारा ध्यान संवेगों के नियंत्रण और अनुशासन पर केन्द्रित नहीं होगा, तब तक समाज में परिवर्तन लाने की बात नहीं आएगी। साम्यवादी शिक्षाप्रणाली में यह माना गया कि ज्ञान केवल जानने के लिए, विश्व का पुनर्निर्माण करने के लिए और समाज को बदलने के लिए है। किन्तु शिक्षा के द्वारा यह नहीं हो रहा है। इसका तात्पर्य है कि शिक्षा में कहीं न कहीं त्रुटि है। और वह त्रुटि यह है कि शिक्षा में भावात्मक विकास की बात छूट गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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