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आत्मानुशासन अनुप्रेक्षा
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येनात्मा साधितस्तेन, विश्वमेतत् प्रसाधितम्। .
येनात्मा नाशितस्तेन सर्वमेव विनाशितम् ।। जिसने आत्मा को साध लिया उसने विश्व को साध लिया। जिसने आत्मा को गंवा दिया, उसने सब कुछ गंवा दिया।
जैन-दर्शन का सारा चिंतन आत्मा की परिक्रमा किए चलता है। ... आत्मा का ज्ञान ही सम्यग ज्ञान है .. आत्मा पर आस्था ही सम्यग् दर्शन है। आत्म-प्राप्ति की प्रवृति ही सम्यग् चारित्र है।
आचारांग सूत्र में कहा है-'जे एगं जाणई से सव्वं जाणई-जो एक को (आत्मा को) जानता है, वह सबको जानता है।
आत्मा-विजय ही परम विजय है। आत्मा को रखते हुए देह की रक्षा की जाए, वह देह-रक्षा भी संयम है। आत्मा को गंवाकर देह की रक्षा करना साधक के लिए इष्ट नहीं होता। आत्मा की सुरक्षा सुख का और असुरक्षा दु:ख का हेतु है। इसलिए आत्मा को जानो, आत्मा को वश में करो, यही धर्म का सार है। भगवान् महावीर ने कहा
अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो, सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहिं। अरक्खिओ जाइपहं उवेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चई ।।
सभी इन्द्रियों को सुसमाहित कर आत्मा की सतत रक्षा करो। अरक्षित आत्मा जन्म-मरण को प्राप्त होता है और सुरक्षित आत्मा दु:खों से मुक्त हो जाता है। समाज-व्यवस्था में दर्शन
स्वाधीनता दर्शन की बहत बड़ी देन है। सब लोग विचारों की स्वतंत्रता चाहते हैं, लेखन और वाणी की स्वतंत्रता चाहते हैं। स्वतन्त्रता का घोष प्रबल है। कोई पराधीनता नहीं चाहता। राजा शब्द इतिहास और शब्दकोष का विषय बन गया है। वैसे ही नौकर शब्द भी अतीत की वस्तु बनता जा रहा है। इसका अर्थ है कि निरपेक्षता आ रही है। सापेक्षता की कड़ी टूटने पर कोई बड़ी हानि नहीं; व्यवस्था न रहे तो कोई दोष नहीं; शासन न रहे तो कोई आपत्ति नहीं; यदि स्व-शासन आ जाए। स्व-शासक न शासन से शासित होता है और न शासन से मुक्त। कुसले पुण नो बद्धे नो मुक्के-कुशल वह है जो न बद्ध होता है और न मुक्त। एक ही व्यक्ति जो न बन्धा हुआ हो और न मुक्त हो, यह कैसे हो सकता है ? शासन छोड़ा नहीं जा सकता। जहां शासन नहीं, वहां त्राण नहीं। कोई भी अत्राण रहना
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