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________________ २०८ अमूर्त चिन्तन भरोसा नहीं किया जा सकता। साधना की आंच में अनुकूलता और प्रतिकूलता को झेलते-झेलते जो पक जाता है वह विश्वास करने योग्य बनता है, अन्यथा सत्तर वर्ष का आदमी भी अविश्वसनीय ही रहता है। बड़ी उम्र हो जाने से कोई विश्वासपात्र नहीं बन जाता है। यदि नहीं पकता है तो जीवन में बड़े खतरे रहते हैं। परिवर्तन की प्रक्रिया है-पक जाना। पकने के लिए दो आंचों से गुजरना पड़ता है। एक अनुकूलता की आंच और दूसरी प्रतिकूलता की आंच। प्रतिकूलता की आंच को सहना कठिन काम है तो अनुकूलता की आंच को सहना कठिनतम काम है। जितना खतरा अनुकूलता से होता है, उतना खतरा प्रतिकूलता से नहीं होता। ध्यान के द्वारा इन दोनों स्थितियों का पार पाया जा सकता है, अनुशासन स्थापित किया जा सकता है। ध्यान करने वाला व्यक्ति अपने चंद्र स्वर का प्रयोग करता है। वह पकता है। श्वास के साथ बहुत सारे रासायनिक तत्त्व होते हैं। वे वाहन का काम कर सकते हैं। माध्यम बन सकते हैं। किसी विचार को पहुंचाना है, किसी को सहना है तो श्वास-संयम के बिना वह सहज-सरल नहीं होगा। यदि हमने श्वास को साध लिया, दीर्घ-श्वास का और समताल-श्वास का प्रयोग करना सीख लिया तो अनुकूल स्थिति और प्रतिकूल स्थिति को भी झेल सकते हैं। प्रतिकूल स्थिति को झेलना पड़ता है। सामने प्रतिकल स्थिति आती है और मस्तिष्क में गर्मी छा जाती है। उत्तेजना आती है, तब पीनियल और पिच्यूटरी में भयंकर गर्मी पैदा हो जाती है। ये सारे स्थान बहुत सक्रिय हो जाते हैं। उत्तेजना की अवस्था में तो वह झेलना पड़ता है। यदि उस समय हमारे श्वास का अभ्यास अच्छा होता है, तो लाभ प्राप्त कर लेते हैं। कोई भी प्रतिकूलता मन में आ रही है, मन में पारा गर्म हो रहा है, उत्तेजना भभक रही है, तत्काल समताल-श्वास का प्रयोग शुरू करें, ऐसा लगेगा कि आग और पानी दो हैं और बीच में कोई बर्तन आ गया। आग जल रही है, पानी डालो, आग बुझेगी, पानी फालतू चला जाएगा। आग जल रही है, बर्तन रखकर उसमें पानी डालो, पानी गर्म हो जाएगा, काम का बन जाएगा। पानी काम का भी बन सकता है, आंच को सहकर, और आग में गिरकर पानी फालतू भी हो सकता है। श्वास की क्रिया एक ऐसा बर्तन है। अगर इसका उपयोग किया जाए तो आंच भी लगेगी और जो कुछ आएगा वह फालतू नहीं लगेगा, उसका भी उपयोग हो जाएगा। जो शक्ति क्रोध के द्वारा खर्च होती थी वह शक्ति बच जाएगी और काम की शक्ति बन जाएगी। जितनी आवेग, आवेश और वासनाएं हैं, वे सारे-के-सारे प्राण की शक्ति को खर्च करते चले जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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