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सहिष्णुता अनुप्रेक्षा
कष्ट - सहिष्णुता के बिना जीवन में उदात्त कर्म की साधना नहीं की जा सकती । सारी उदात्तताएं, विशिष्टताएं, कष्ट-२ :- सहिष्णुताएं एक साथ जुड़ी हुई हैं। इसलिए कहा गया- 'परीसहे जिणंतस्स'.....! जो परिषहों को सहन करता है, कष्ट-सहिष्णु होता है, वह उन्नति के शिखर को छू लेता है।
दो प्रकार के जीवन की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। एक है कष्ट - सहिष्णु जीवन की व्याख्या और दूसरी है आरामतलबी जीवन की व्याख्या । जिस व्यक्ति को जीवन में सफल होना है, जो कुछ होना चाहता है, वह कभी आरामतलबी की दिशा में नहीं जाना चाहता ।
साधक को कष्ट-सहिष्णु बनना ही चाहिए। ध्यान की साधना करने बालों को, अभ्यास करने वालों को कष्ट से विचलित नहीं होना चाहिए । कष्ट सहने का भी प्रशिक्षण होना चाहिए। जहां दो सौ व्यक्ति हों, वहां यदा-कदा अनेक प्रकार की कठिनाइयां आ सकती हैं। यदि व्यवस्थापक वर्ग कठिनाइयां नहीं आने देते तो यह उनकी व्यवस्था निपुणता है । किन्तु कष्ट सहने का अवसर भी आना चाहिए। तभी साधकों की कसौटी हो सकती है । जैन व्यवस्थापकों की कसौटी है कि व्यवस्था को कितनी निपुणता से बनाये रखते हैं, वैसे ही साधकों की यह कसौटी है कि व्यवस्था में कहीं न्यूनता होने पर भी वे कैसे उसको सहन करते हैं । प्रेक्षा- ध्यान की उपसम्पदा स्वीकार करते समय यह संकल्प किया जाता है कि मैं प्रतिक्रिया विरति' का अभ्यास करूंगा। क्या कष्टों को सहन करने वाला व्यक्ति प्रतिक्रिया नहीं करेगा ? जो सहन करना नहीं जानता, वह प्रतिक्रिया से बच ही नहीं सकता। उसके मन में पग-पग पर प्रतिक्रिया होती है । प्रतिक्रिया से वही व्यक्ति बच सकता है जो कष्ट- सहिष्णु है, जिसमें सहिष्णुता का विकास हुआ
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हमारी चेतना की बड़ी शक्ति है - सहिष्णुता । यह वह प्रज्वलित अग्नि है, लौ है, जिसके द्वारा जीवन आलोकित होता है। जिसमें कष्टों को सहन करने की चेतना नहीं जागती, उसके जीवन में प्रकाश नहीं हो सकता। आग के जले बिना प्रकाश सम्भव नहीं होता । सारा अन्धकारमय बना रहता है । जिसे प्रकाशी होना है, अपने जीवन को प्रकाश से भरना है, उसे कष्ट-सहिष्णु बनना ही होगा । कष्ट - सहिष्णुता के साथ-साथ मनोबल का भी
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