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अमूर्त चिन्तन
होगी। समाधि का सूत्र है-'मैं दु:ख भोगने के लिए नहीं जन्मा हूं।' यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इससे दु:ख के संवेदन समाप्त हो जाते हैं। सम्बन्धों, सम्पर्कों और पदार्थों से होने वाले सारे दु:ख अपने आप मिट जाते हैं। यही है अनासक्ति योग। अनासक्ति का अर्थ है-पदार्थ के साथ जुड़ी हुई चेतना का छूट जाना, उसके घनत्व का तनूकरण हो जाना, पदार्थ के साथ चेतना का सम्पर्क कम हो जाना। जब यह होता है तब समूचे जीवन में चेतना व्याप्त हो जाती है और आसक्ति की छाया दूर हो जाती है। कैसे देखें ?
' कैसे देखें ?-यह बहुत ही महत्त्व का प्रश्न है। देखना जितना महत्त्वपूर्ण है, उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है-कैसे देखें ? इसका सीधा उत्तर होगा कि आंखों से देखें। यह तो ठीक है। आंखों से देखना है, किन्तु केवल आंखों से देखना ही पर्याप्त नहीं होगा। आंखों से देखने से पहले, जो कुछ अनिवार्य शर्ते हैं देखने की, उन्हें समझना होगा। पहली शर्त है कि अनासक्त भाव से देखें, तटस्थ भाव से देखें, राग-द्वेष रहित चेतना से देखें। यदि आसक्ति है तो ठीक दिखाई नहीं देगा। आंख देखेगी पर यथार्थ नहीं दिखेगा, कुछ और ही नजर आएगा।
एक रसिक आदमी ने स्त्री का गोल चेहरा देखा। उसे वह चांद-सा प्रतीत हुआ। भूखे आदमी ने स्त्री का गोल चेहरा देखा। उसे वह रोटी-सा प्रतीत हुआ। एक के साथ कामासक्ति जुड़ी है, एक के साथ पदार्थासक्ति जुड़ी हुई है। अब स्त्री का मुंह चांद कैसे हो सकता है ? वह रोटी कैसे हो सकता
इन आंखों से देखते हैं, पर जो है वह दिखाई नहीं देता। उसके साथ जो हमारी आसक्ति जुड़ी होती है, वह दिखाई देने लग जाती है। बहुत बार असुन्दर भी सुन्दर दिखाई देता है और सुन्दर भी असुन्दर दिखाई देता है। जिसके साथ आसक्ति जुड़ी होती है वह असुन्दर भी सुन्दर प्रतीत होता है। जिसके साथ घृणा जुड़ी हुई है, तिरस्कार का भाव जुड़ा हुआ है, वह सुन्दर भी असुन्दर दिखाई देगा । आंखें बेचारी यथार्थ को कहां देख पाती हैं। आंखों पर आवरण पड़ा है। आसक्ति का, राग-द्वेष का, प्रियता-अप्रियता का। जब तक यह आवरण दूर नहीं होता, आसक्ति नहीं मिटती, राग-द्वेष नहीं मिटता, प्रियता और अप्रियता का भाव नष्ट नहीं होता, तब तक आंखें यथार्थ को नहीं देख पातीं। जो है उसे उसी रूप में देख नहीं पातीं। आदमी अच्छा है। वह हमें बरा दिखाई देता है, हम उसे बुरा मान लेते हैं। क्योंकि अच्छा मानने
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