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________________ सत्य अनुप्रेक्षा १३५ सबसे बड़ी उलझन और सबसे बड़ा मिथ्यात्व है। जिसके मन की यह गांठ खुल जाती है, वह सत्य की सीमा में प्रवेश पा जाता है। निर्ग्रन्थ प्रवचन में किसी मत का आग्रह नहीं है, एकांगी दृष्टि का स्वीकार या निरूपण नहीं है। उसमें केवल सत्याग्रही दृष्टि का प्रतिपादन है, इसलिए निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है। इसका अर्थ होता है कि अनेकान्त ही सत्य है या अनेकांत द्वारा दृष्ट तत्त्व ही सत्य है। निर्ग्रन्थ ऋजुता या अनाग्रह का प्रतीक है। राग, देष, क्रोध, अभिमान आदि कारणों से व्यक्ति असत्य का स्वीकार या निरूपण तथा असत् का आग्रह करता है। अज्ञानी आदमी भी यह सब कुछ करता है। निर्ग्रन्थ ज्ञान और वीतरागता-दोनों की उपासना करता है। ज्ञानी और वीतराग का दृष्टिकोण सत्याग्रही होता है। इसलिए उसकी अनुभूति को-निर्ग्रन्थ प्रवचन को-सत्य मानने में कोई कठिनाई प्रतीत नहीं होती। जैन दर्शन ने सत्य को किसी व्यक्ति-विशेष या परम्परा-विशेष के साथ नहीं जोड़ा है, किन्तु उसे गुणात्मक स्थिति के साथ जोड़ा है। निर्ग्रन्थ कोई व्यक्ति या परम्परा नहीं है। वह एक गुणात्मक अवस्था या स्थिति है। इस दृष्टि से भी निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है और यह कहने में भी कोई कठिनाई नहीं है कि निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है। सत्य का अणुव्रत कुछ विचारकों का अभिमत है कि सत्य का अणुव्रत नहीं हो सकता। उसे टुकड़ों में बांटा नहीं जा सकता। हिंसा जीवन की अनिवार्यता है, इसलिए अहिंसा का अणुव्रत हो सकता है। किन्तु असत्य जीवन की अनिवार्यता नहीं है अत: सत्य का अणुव्रत नहीं हो सकता। महाव्रत और अणुव्रत का विभाग केवल अनिवार्यता के आधार पर ही नहीं होता, प्रमाद भी उनके विभाजन का मुख्य हेतु है। हर आदमी के लिए यह संभव नहीं कि वह सतत जागरूक रहे। जो सतत जागरूक नहीं रहता वह पूर्णत: सत्यवादी नहीं हो सकता। जहां प्रमाद आता है वहां असत्य आ ही जाता है। आदमी मजाक में झूठ बोल लेता है। वह झूठ बोलने के उद्देश्य से झूठ नहीं है, फिर भी झूठ तो है ही। असत्य बोलने का दूसरा हेतु है अशक्यता। हर व्यक्ति में एक साथ इतनी क्षमता विकसित नहीं होती कि वह एक चरण में असत्य बोलना छोड़ दे। जिनमें इस प्रकार की क्षमता विकसित नहीं होती, वे असत्य परिहार का क्रमिक अभ्यास करते हैं। पहले अमुक-अमुक प्रकार का असत्य बोलना छोड़ते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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