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________________ सत्य अनुप्रेक्षा १३३ सत्य के दो रूप : अस्तित्ववाद और उपयोगितावाद भगवान् महावीर वीतराग थे। सत्य से उनका सीधा सम्पर्क था। उन्होंने जो कहा, वह सुना-सुनाया या पढ़ा-पढ़ाया नहीं कहा। उन्होंने जो कहा, वह सत्य से सम्पर्क स्थापित कर कहा । इसलिए उनकी वाणी यथार्थ का रहस्योद्घाटन और आत्मानुभूति का ऋजु उद्बोधन है। जो सत्य है वह अनुपयोगी नहीं है, पर उसके कुछ अंश विशेष उपयोगी होते हैं। हम परिवर्तनशील संसार में रहने वाले हैं, अत: कोरे अस्तित्ववादी ही नहीं, किन्तु उपयोगितावादी भी हैं। हम सत्य को कोरा यथार्थवादी दृष्टिकोण ही नहीं मानते, किन्तु यथार्थ की उपलब्धि को सत्य मानते हैं। आत्मा है और प्रत्येक आत्मा परमात्मा है-ये दोनों अस्तित्ववादी या यथार्थवादी दृष्टिकोण हैं। आत्मा की परमात्मा बनने की जो साधना है, वह हमारा उपयोगितावाद है। अस्तित्ववादी दृष्टिकोण से भगवान् ने कहा- 'आत्मा भी सत्य है और अनात्मा भी सत्य है।' उपयोगितावादी दृष्टिकोण से भगवान् ने कहा-'आत्मा ही सत्य है, शेष सब मिथ्या है।' पहला द्वैतवादी दृष्टिकोण से देखने का संदेश देते हैं। अनेकान्त-दृष्टि से अद्वैत भी उनके लिए उतना ही ग्राह्य था जितना कि द्वैत और एकान्त दृष्टि से द्वैत भी उनके लिए उतना ही अग्राह्य था जितना कि अद्वैत । वे अद्वैत और द्वैत-दोनों को एक ही सत्य के दो रूप मानते थे। सत्य के विन सत्य आत्मा से बाहर नहीं है। वह हमें पाना नहीं है किन्तु प्राप्त है। उसके अभिव्यक्त होने में जो विघ्न हैं, उन्हें दूर करना है। सत्य की दूरी विघ्न के कारण प्रतीत होती है। विघ्न नष्ट हो जाने पर सत्य में और हम में कोई द्वैत नहीं रहता। सम्यग्-दर्शन का पहला विघ्न है-आशंका। अशंकनीय तत्त्व के प्रति शंका का उत्पन्न होना सत्य के साथ आंख-मिचौनी खेलने जैसा है। बहुत सारे लोग अपने अस्तित्व के प्रति आशंकित होते हैं जबकि वह शंकनीय नहीं है। इस दुनिया में जो पहले नहीं है और पीछे नहीं है, वह मध्य में भी नहीं हो सकता-'जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कओ सिया ।' एक परमाणु भी जब अपना अस्तित्व नहीं खोता, तब चेतना अपना अस्तित्व कैसे खोये ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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