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________________ १२२ पुरुष और पौरुष १. २. ३. ४. ५. १. २. मनुष्य अपने सुख-दुख का कर्ता स्वयं है। अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं है । अमूर्त चिन्तन राजा देव नहीं है, ईश्वर का अवतार नहीं है। वह मनुष्य है, उसे देव मत कहो, सम्पन्न मनुष्य कहो । ग्रन्थ मनुष्य की कृति है । पहले मनुष्य फिर ग्रन्थ । कोई भी ग्रन्थ ईश्वरीय नहीं है । विश्व की व्यवस्था शाश्वत द्रव्यों के योग या परस्परापेक्षिता से स्वतः संचालित है। वह किसी एक सर्वशक्तिमान् सत्ता द्वारा संचालित नहीं है । यह विश्व छह द्रव्यों की संघटना है। वे ये हैं धर्म- गतितत्त्व | काल । अधर्म-स्थितितत्त्व । पुद्गल जीव । ४. ५. ३. आकाश । ६. ६. मनुष्य अपने ही कर्त्तव्य से उत्क्रान्ति और अपक्रान्ति करता है इस प्रसंग में महावीर ने जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष- इन तत्त्वों की व्याख्या की । ७. मनुष्य भाग्य या कर्म के यंत्र का पुर्जा नहीं है । भाग्य मनुष्य को नहीं बनाता, मनुष्य भाग्य को बनाता है । वह अपने पुरुषार्थ से भाग्य को बदल सकता है। स्वावलंबन नैतिक जीवन की पहली शर्त है। समाज की भूमिका में स्वावलंबन का अर्थ यह नहीं होता कि मनुष्य दूसरों का सहयोग ले नहीं । मेरी सम्मति में उसका अर्थ यही होना चाहिए कि मनुष्य अपनी शक्ति का संगोपन न करे, जिस सीमा तक अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर सके तथा विलासी जीवन को उच्च और श्रमरत जीवन को हेय न माने । विलास और आराम के प्रति मनुष्य का झुकाव सहज ही होता है और इस धारणा से उसे पुष्टि मिल जाती है कि श्रम करने वाला छोटा होता है । परावलंबी जीवन का यही आधार है स्वावलंबन (अपनी श्रम शक्ति) का अनुपयोग ओर परावलंबन (दूसरों की श्रम शक्ति) का उपयोग शोषणपूर्ण जीवन का आरम्भ बिंदु है। शोषण अनैतिकता की जड़ है। अणुव्रती चाहता है कि समाज में शोषण न रहे । अतः उसके लिए यह प्राप्त होता है कि वह स्वावलंबन या श्रम की भावना को जन-जन तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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