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कर्तव्यनिष्ठा अनुप्रेक्षा
कर्तव्यनिष्ठा सदाचार की प्रेरक शक्ति है। अपने कर्त्तव्य के प्रति जागरूक व्यक्ति अकरणीय कर्म से विरत रहता है। जब कभी उनके चरण प्रमाद की ओर बढ़ते हैं, कर्तव्य की प्रेरणा उसे मोड़ देती है और वह , सत्संकल्प कर लेता है।
मानवीय एकता का संघाटक ही कर्तव्य हो सकता है। उसकी प्रेरणा समानता है। जाति, रंग, भाषा और रीयता की भिन्नता में भी मानवीय अभिन्नता है। उसे गौण करने का मुख्य हेतु है व्यक्तिगत आकांक्षा और अहम् । अपनी समृद्धि और बड़प्पन में जो रस है, वह एक सीमा तक न्याय-संगत हो सकता है किन्तु जब वह दूसरों को संकट में डालने लगता है तब सर्वमान्य न्याय-संगत धरातल के नीचे उतर जाता है। अध्यात्म और व्यवहार
अध्यात्म के स्तर पर जीने वाले व्यक्ति का व्यवहार और व्यवहार के स्तर पर जीने वाले व्यक्ति का व्यवहार भिन्न होता है। व्यवहार से मुक्त कोई भी नहीं हो सकता। जो शरीरधारी है, वह व्यवहार करता है। व्यवहार के बिना वह जी नहीं सकता, उसका जीवन चल नहीं सकता। किंतु दोनों का व्यवहार बहुत भिन्न होता है। आचारांग सूत्र का कथन है कि आध्यात्मिक व्यक्ति को अन्यथा व्यवहार करना चाहिए। व्यवहार की भूमिका पर जीने वाले की तरह नहीं करना चाहिए, किन्तु उसे भिन्न प्रकार से व्यवहार करना चाहिए, अन्यथा व्यवहार करना चाहिए।
हम ‘अन्यथा' शब्द को समझें, इसके तात्पर्य को समझें। व्यावहारिक व्यक्ति का व्यवहार क्रियात्मक नहीं होता, वह प्रतिक्रियात्मक होता है। वह सोचता है, उसने मेरे प्रति ऐसा व्यवहार किया है तो मैं उसके प्रति ऐसा ही व्यवहार करूं। यह क्रियात्मक व्यवहार नहीं, प्रतिक्रियात्मक व्यवहार है। ऐसे व्यक्ति में कर्त्तव्य की स्वतंत्र प्रेरणा नहीं होती और कर्तव्य का स्वतंत्र मूल्य भी नहीं होता। उसका कर्त्तव्य स्व-संकल्प से प्रेरित नहीं होता, वह होता है दूसरों से प्रेरित। वर्तमान के आचार-शास्त्रियों और दार्शनिकों ने आचार के मूल्य की मीमांसा में इस प्रश्न पर बहुत चर्चा की है कि हमारे कर्तव्य की प्रेरणा और हमारे कर्तव्य का स्वरूप क्या होना चाहिए। प्रसिद्ध दार्शनिक कांट ने
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