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________________ ८२ तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं सुजयं । चिट्ठियव्वं निसियव्वं, भुजियव्बमभयं ।।३।। आउत्तं कज्ज सया, कीरमाणसं गुणे । पावं कम्म न बंधइ, पोराणं बिधुणे ॥४॥ पंच सभिइ-समियस्स वा, गुत्तिदिय गुतस्स । सिद्धि सया हत्था गना, गुत्तबंभनारिस्स ॥५॥ इस प्रकार नादसौंदर्य, अनुरणात्मकता, समास-प्रधानता एवं लौकिक प्रयोगों से भरपूर भाषा ने राजस्थानी तेरापंथी कवियों के कलापक्ष को द्विगुणित किया है। पाठक के लिये यह कविता सम्प्रेषणीय है। तेरापंथ के इन राजस्थानी कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति को ढाल, दूहा, सोरठा, आर्या, लावणी, कलश, यतनी, गीतक, भुजंगप्रयात, शार्दूलविक्रीडित, शिखरिणी, मोतीदाम आदि छंदबंधों में बांधा है। ये छंद जैनशैली के अनुरूप हैं तथा तत्सम्बन्धी साहित्य के उद्देश्य की पूर्ति करते हैं । आचार्य तुलसी ने रचना के प्रसंगरूप को स्पष्ट करने के लिए आरंभ में संस्कृत पदों का भी प्रयोग किया है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि तेरापंथ के राजस्थानी साहित्य का कलापक्ष काव्यत्व सम्पन्न है । जनरुचि के अनुकूल भाषा, शब्दावली, छन्द और अलंकारों ने इस काव्य को पंथ विशेष के साथ ही राजस्थानी साहित्य की स्थायी धरोहर बना दिया है। संदर्भ : १. हिन्दी साहित्य का इतिहास-नागरी प्रचारिणी सभा, काशी । २. 'परम्परा'-राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल विशेषांक श्री अगरचन्द नाहटा का लेख —'मध्यकालीन राजस्थानी जैन साहित्य' पृ० १२५ ३. विस्तृत विवरण हेतु द्रष्टव्य है---"तुलसीप्रज्ञा' में प्रकाशित मुनि सुखलाल की लेख शृंखला "तेरापंथ के आधुनिक राजस्थानी संत साहित्यकार"। ४. कालयशोविलास-उल्लास २, ढाल २०, छन्द २३-२६, पृ० १०४ ५. वही, ५।९ पृ० २९७ ६. वही, ५।९।१५ पृ० २९७ ७. माणक महिमा --ढाल १८, छन्द ८, पृ० ९० ८. वही, ११७ पृ०७ ९. कीर्तिगाथा-भिक्षुगणि, गुणवर्णन, ढाल १७, पृ० १४ १०. कालूयशोविलास–५।७।१०, पृ० २९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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