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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
ऐसे अवसर पर कोई मां अपने में कितना ढाढस बटोर सकती है, उसी को कवि ने भावानुकूल' शब्दावली में यहां प्रस्तुत किया है--
लाल पाल कर पालियो, जिण नै हाथोहाथ । तिण रो आज निभा लियो स्वर्ग गमन साक्षात् ।।३।। पल-पल में मैं झांकती, जिण री निशदिन बाट । सो सोभागी लाडलो, विलसे सुरगा ठाट ॥५॥ मो मन में नेहचो निविड़, सुत कर में सुर वास । मुझ कर में सुत संचरयो, ओ विचित्र विधि भास ॥७॥ अति लम्बो आयुष्य ओ, म्हारो बण्यो निकाम । निठुर हृदय निरखै नयन, नन्दन विरहो वाम ॥८॥ जो सपनै जांणी नहीं, सो दरसांणी आज । कोई पण मत बांधज्यो, भावी रो अंदाज ॥९॥ गुरु जणनी अति विरहणी, सर्व सहणी रूप । समझावै चेतन भणी, अपणो आत्म सरूप ॥१०॥"
इन कवियों ने विभिन्न ऋषि-मुनियों, आचार्यों के व्यक्तित्व की रेखाओं को रूपायित करने हेतु ऐसे शब्द और ध्वनियों का प्रयोग किया है कि उन्हें पढ़ कर न मन भरता है और न ही आंखें थकती हैं। ऐसा ही मनोरम वर्णन जयाचार्य जी की रचना "सतजुगी चरित' से प्रस्तुत है जहां आचार्य भिक्षु के व्यक्तित्व के बिंब को उन्होंने इस शब्दावली में चित्रित किया है---
अप्रतिबंध वायु जिसा, क्षम्यावान गुणखांन । शीतल अमृत सरिखो वारू वरसतो वांन ।।८।। पाखंड धूज धाक तूं, आतपकारी आप । औजागर गुन आगला, मेटै घणां रा संताप ।।९।। आनंदकारी ओपता, समण सत्यां सिरमोड़ ।
आचार्य इण काल में, अवर न एहड़ी जोड़ ॥१०॥३४
भावानुकूल भाषा का प्रयोग तेरापंथी कवियों की विशिष्टता है । बढ़ते औद्योगीकरण के कारण मानव व्यवहार में निरन्तर परिवर्तन आता जा रहा है । व्यक्ति अपने स्वरानुकूल संबंधों की स्थापना का पक्षपाती बन गया है। उच्च वर्ग के लिये सामान्य व्यक्ति का कोई महत्व नहीं रह गया है। इसी युगबोध को मुनि मोहनलाल जी सहज भावानुकूल भाषा में स्पष्ट करते हुए कहते हैं -
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