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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
नहिं सरदी-गरमी रो अनुभव साक्षात् शरद बरत बरतारो॥
वर्णनशैली की ऐसी ही द्रावकता से हमारा परिचय होता है "माणकमहिमा' की १८वीं ढाल में, जहां माणक गणि के बाद साधु-साध्वियां अपने को बिना ग्वाले की गायों के समान मान रहे हैं (दूहा ६, पृ० ८९)। ऐसा ही प्रतीकों से परिपूर्ण एक बिम्ब प्रस्तुत है, जहां सध में आचार्य के स्थान को चन्द्रमा से भी अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है ...
ग्रह नक्षत्र चमकता सारा, तारां री रमझोल, पिण अम्बरियो सूनो लागै, नहीं चांद चमकोल ।। संता ! बिना चांद की रजनी स्यूं आपां तुल ज्यांवाला ॥
मुनि मोहनलाल "आमेट" भी अंधकार और प्रकाश के प्रतीकों के माध्यम से समकालीन घटनाओं का वर्णन इन पंक्तियों में करते हैं
अंधेरो पोर दिवलो कर्यो
आंगण ने सैंचनण पण सुवारथी मिनख जोत नै बुझार अंधेरे नै नतो दियो क्यूं'क परकास'र पाप में
अणबण है। वर्णनात्मक शैली के अतिरिक्त तेरापंथ के राजस्थानी साहित्य में हम प्रश्नोत्तर शैली से भी परिचित होते हैं। जयाचार्यजी की "झीणी चरचा" नामक कृति पूर्णतः दार्शनिक विशेषतः “तेरापंथ -दर्शन" पर आधृत रचना है। इसमें कवि ने जैन तत्व-चिन्तन की व्याख्या "कोन' के माध्यम से की है। पहले प्रश्न रूप में "कौन" कहकर आचार्य ने उसका समाधान किया है। कथन की यही व्याख्यात्मक पहुंच श्रावक को पंथ का तात्विक परिचय दे सकती है। इस गूढ़ विषय को सहज रूप में समझा सकती है--
तीन जोगा में किसो जोग है ? सुणियै तेह नो न्याय । मन वचन काया रा जोग तिहुं, सलेसी कह्या जिनराय ॥
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कवि आचार्य (जयाचार्य) ने अपनी बात को आगमवाणी के प्रमाण के साथ कही है।
जैन धर्म श्रमण संस्कृति का प्रमुख अंग है। यहां साहित्य का सृजन धार्मिक भावना के प्रचार-प्रसार हेतु किया जाता रहा है। किन्तु उसे सर्वग्राह्य
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