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तेरापंथ के राजस्थानी साहित्य का कलापक्ष
0 डा० मनमोहन स्वरूप माथुर
प्रायः सभी भाषाओं का प्रारम्भिक साहित्य धर्म और शक्ति प्रधान रहा है। हिन्दी-साहित्य की आदिकालीन उपलब्ध बौद्धों, सिद्धों और नाथों की रचनायें भी इसी ओर संकेत करती हैं। यद्यपि शुक्ल जी ने इस प्रकार के साहित्य को 'नोटिस मात्र' कहकर उसे अधिक महत्त्व नहीं दिया, जबकि मध्यकाल के इसी साहित्य को उन्होंने भक्ति की दृष्टि से सर्वोच्चता प्रदान की।' तात्पर्य यह कि धार्मिक सम्प्रदायों से सम्बन्धित साहित्य का उस भाषासाहित्य के विकास में बड़ा योगदान रहता है। वहीं साहित्य के भविष्य का निर्माण करता है।
भारत सदैव से ही एक धर्मनिरपेक्ष देश रहा है। यहां जब-तब विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों का अस्तित्व रहा और उनसे सम्बन्धित साहित्य का सृजन भी विपुल मात्रा में हुआ। सूफी सम्प्रदाय इसी परम्परा का एक गैर भारतीय धार्मिक सम्प्रदाय है, जिसने भारतीय साहित्य के निर्माण में अपूर्व सहयोग किया।
भारतीय साहित्य को पल्लवित करने वाली एक महत्त्वपूर्ण भारतीय विचारधारा जैनियों की रही है। जैन मुनियों, यतियों ने प्राकृत, अपभ्रंश और राजस्थानी में अनेक महत्त्वपूर्ण रचनायें लिखकर साहित्य की स्रोतस्विनी को सदैव प्रवाहित रखा है । अपने विशिष्ट साहित्य बंधों के कारण बौद्धों की चर्यापद शैली, नाथों-सिद्धों की वाणी शैली, सूफियों की मसनवियों की भांति ही जैन चरित काव्य-शैली का भी महत्वपूर्ण स्थान है।।
जैन धर्म में प्रमुखतः दो सम्प्रदाय हैं-श्वेताम्बर और दिगम्बर । दिगम्बर सम्प्रदाय की तुलना में श्वेताम्बरियों की शाखा-प्रशाखाएं अधिक हैं । इसका मूल आधार उनकी साधना (उपासना) पद्धति है। जैन धर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय से ही पृथक हुआ एक उल्लेखनीय सम्प्रदाय है"तेरापंथ' । इस पंथ का इतिहास अधिक पुराना नहीं है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ही स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य रघुनाथजी के पास विक्रम संवत् १८०८ में दीक्षित मारवाड़ के कंटालिया ग्रामवासी भीखणजी (आचार्य भिक्ष) ने "तेरापंथ" का प्रवर्तन किया। अपने गुरु रघुनाथजी के साथ कुछ मतभेद हो जाने से उन्होंने इस पंथ की स्थापना वि० सं० १८१७ में की। इस
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