SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान ३. वचन अगोचर गावां म्हे ४. म्हारो शीष झुकावा म्हे ५. दृढ़ विश्वास दिरावां म्हे ६. थांरी मरजी चावां म्हे' इस आवर्तन में उद्देश्य का अंत में स्थापन सभी संरचनाओं में है, विधेय-+ उद्देश्य भी है, उत्तमपुरुष शैली है, आत्मकथ्य जैसा है। प्रथम में वक्ता के मन में उबुद्ध सराहना का भाव, द्वितीय में आश्चर्य का भाव, तृतीय में इच्छा, चतुर्थ में विनम्रता, पाँचवे में विश्वस्तता, छठे में चाहना-आकाँक्षा । किन्तु इन विविध भावों में संसक्ति बनाता है-'म्हे' । बहुवचन 'म्हे' अपने में एक पूरे समुदाय को निहित किये है। संदेश रूप में फिर आचार्य श्री माणक का वैशिष्ट्य उभरता है। शब्द चयन कथ्य को उजागर करता है, सटीक है भाग्य के साथ सरांवां, इचरज के साथ पावां, वचन-अगोचर के साथ गावां, शीष के साथ झुकावां, विश्वास के साथ दिरावां और मरजी के साथ चावां । यह चयन प्रक्रिया रचनात्मकता के दौर में, सिद्ध कवि के मन में स्वतः चालित होती है, शब्द स्वयं अपने अनुकूल दूसरे शब्द की खोज के लिए रचनाकार को प्रेरित करता है। आनंदवर्धन ने इसीलिए कहा है---- “यत्नतः प्रत्यभिज्ञेयौ तौ शब्दार्थो महाकवेः" । इस ग्रन्थ का बीज भाव या प्रतोकार्थविज्ञान की शब्दावली में मैट्रिक्स (MATRIX) तो आचार्य श्री माणक का चरित्र है ही, वही इन विभिन्न किन्तु परस्पर संसक्त मॉडल्स (MODEL) को निष्पन्न करता है। बारहवीं ढाल में 'जी गच्छाधिप जी' पदबन्ध का आवर्तन रचयिता की अतिशय श्रद्धा का द्योतक तो है ही उसकी आत्मीय एकात्मकता का भी प्रत्यायक है। 'माणक महिमा' में ढाल शीर्षक नहीं दिया गया है, किन्तु है वही शैली । ढाल, उसके अंतर्गत दूहा, सोरठा और लावणी। स्वयं रचयिता ने कहा है _ 'तुलसी तीजी ढाल में, लह्यौ माणक हर्ष प्रकाम हो' आचार्य श्री तुलसी विरचित 'डालिम चरित्र' तेरापंथ के सातवें आचार्य श्री डालिमचंदजी का चरित्र आख्यान है। इसमें भी ढाल, उसके अंतर्गत दूहे, सोरठे और नवीन छंद हैं । आवर्तन का वैशिष्ट्य इस रचना में भी है। ढाल चार में 'प्यारा म्हांने लागो रा स्वामी जी'५ संरचना का छह बार आवर्तन हुआ है। इन आवर्तनों से इनके पूर्व आने वाले कथन परस्पर संसक्त होकर एकसूत्रता का विचित्र विधान करते हैं। केवल एक आवर्तन में, 'प्यारा' के स्थान पर 'आछा' का प्रयोग है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy