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________________ २१६ तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान __ मेरी दृष्टि में 'नन्दन निकुंज' के सिरजनहार--भाचार्य शिरोमणि, आध्यात्मिक पथ अधिनेता, शरच्चन्द्र श्वेती, धर्मसंघ संवाहक, विषय-वासना उपरत, अनिकेतधाम तुलसी जी की इस अभिनव रचना में जैसी सरसता, मनोहरता, कर्णप्रियता, लयात्मकता, रागात्मकता तथा लोकात्मकता दृष्टिगत होती है वह अन्यतम है । ___ 'नन्दन निकुंज' का प्राणतत्त्व है--गीत । गीत हमारे मन की सुखदुखात्मक अनुभूतियों की भावोच्छ्वासपूर्ण सरस अभिव्यक्ति को कहते हैं । संगीत में आनन्द निर्भर प्रवाहित होता है। यह ब्रह्मानद सहोदर काव्यानंद का प्रतिरूपण है। इसे शब्दगम्य, अर्थ प्रतीतिगम्य तथा रागबोधक कहा जा सकता है। _ 'नन्दन निकुंज' केवल गीतों की ही दुनिया नहीं है, वह संगीत की अभिनव सृष्टि है । संगीत में गीत, लय और राग की त्रिवेणी का संगम होता है अर्थात् संगीत यदि तीर्थराज है तो इस तपतीर्थ सृष्टा की गरिमा को क्या शब्दों में निबद्ध किया जा सकता है ? उत्तर है-नहीं । ऐसा क्यों ? वस्तुतः आचार्य श्री की साधना में सम्पूर्ण रूप में प्रकृति की छटा का दिग्दर्शन होता है--इसलिये । कैसे ? उत्कृष्ट विचारों के हिमालयी उत्तुंग शिखर, कल्पना के लहलहाते स्फीत महासागर, भावना की गंभीरता मण्डित सरिता, पंथ-मर्यादा के घाटों से बंधी आचरण-अनुभूति की गंगा, दुरंगे आचरण को विद्रूपता को झुलसाने वाली व्यंग्य अभिव्यक्ति की चिनगारियाँ बिखराती लू, सरस वाणी की मृदु मुस्कान भरी बसन्ती बयार, गुरु वन्दना की प्रभाती सुनहरी रश्मियों का आलोक और अरिहन्त वन्दन की शुभ्र, अमंद, अकलुष, परमोज्ज्वल, सुधासिक्त शरत्चन्द्रिका की अपनी आभा और प्रभा । और इन सब अनुभूतियों को एक शीर्षक में समांकित किया जा सकता है—'नन्दन निकुंज'। स्वयं आचार्य श्री ने अपनी इस कृति की सृजन-प्रक्रिया का चिन्तन इस प्रकार से व्यक्त किया है - "जब कभी संगीत की मधुर धुनें कानों में पड़ती हैं, मन की चेतना वहाँ केन्द्रित हो जाती है।..."ध्यान के उन क्षणों में ऐसी प्रतीति होती है कि जीवन का कण-कण संगीतमय हो रहा है। संगीत में मुझे रस था। उस रस का प्रकर्ष मिला पूज्य गुरुदेव कालूगणी के समय में । मेरा कण्ठ मधुर था और स्वर सूक्ष्म । ...."धीरे-धीरे सर्जक बनने की धुन लगी और मैं अपनी भावनाओं को शब्दों के परिवेश में ढालने लगा।" आचार्य शिरोमणी के इस आत्म-वक्तव्य में दो बातें स्पष्ट झलकती है-प्रथम गुरु-प्रसाद और द्वितीय में शब्द को राग में ढालने की प्रवृति । इसी वक्तव्य में गीत-सृष्टि में प्रयोजनीयता भी झलकती है। रचनाकार का सृजन-प्रयोजन आत्म-परितोष है। इसी आत्म-परितोष में भारतीय सन्त परम्परा का सर्वोच्च उद्घोष गुजित होता है—'स्व' नहीं-- 'सर्वेभवन्तु सुखिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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