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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
कूड़ कपट कर धन मेलो कीधो, ते पिण साथे न आवे रो रे लो तिन धन मेलतां अशुभकर्म लागे,
तिण सू आगे घणो दुख पावे रे लो। गेयात्मकता भीखण जी के समस्त पद्य साहित्य की एक अनन्य विशेषता है। विविध लोक रागों पर आधारित गीत, जिसकी परम्परा अब विरल है, आंतरिक लय और उसके अदृश्य संगीत से पाठक को गहरे अन्तस्थल तक छू जाती है। आलंकारिक सहजता के अनायास प्रयोग ने संप्रेषणीयता को और अधिक धारदार बनाया है। जम्बूकुमार का दूल्हा रूप में चित्रण देखते ही बनता है--
'रूप जंबूकुमार तणो, देखत पायें आनन्द
जाणे बादला मांसू नीकल्यो, रज रहित पूनम रो चाँद ।'
मुहावरों का स्वाभाविक प्रयोग भीखण जी की भाषा सामर्थ्य की ही पहचान कराता है। सायास प्रयोगों का अभाव काव्य को ग्राह्य तो बनाता ही है; रसास्वादन में भी सहायक है
'व्रत लेवारी मनसा जे आणी, तिण में नहीं पैसे पाणी
अवसर लाहि चतुर न चूके, लीधो पिण नेम न मूके ।'
लोक कथात्मक शैली का यह प्रबन्ध-काव्य राजस्थानी की एक महत्वपूर्ण कृति है । दृष्टांत में दृष्टांत और संबाद में संवाद के कारण राजस्थानी लोक कथा परम्परा की पद्य वात-धारा से समीक्ष्य कृति जुड़ी दृष्टिगत होती है। यहाँ पाठक से सहजता के साथ अपने सरोकारा का रिश्ता स्थापित करने की कृतिकार की मंशा आकार लेती दृष्टिगत होती है । तत्सम शब्दावली समीक्ष्य रचना भाषा सामर्थ्य का सम्बल बनी है और इसे कवि की रचना सामर्थ्य का पर्याय ही कह दिया जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। सुदर्शन-चरित
खण्ड काव्य 'सुदर्शन चरित' कवि भीखण जी द्वारा रचित संयम के आदर्श स्वरूप भोग और साधना के संघर्ष की मार्मिक गाथा है। परिवेशगत विषमताएं और बदलती मूल्य दृष्टि समीक्ष्य कृति की सृजनात्मक प्रेरणा का कारक बिन्दु रही है। यही बिन्दु सुदर्शन, कपिला, महारानी अभया, राजा धात्री वाहन व स्वामी धर्मघोष के बीच विकसित हुई है । सुदर्शन, उनकी पत्नी मनोरमा और स्वामी धर्मघोष भारतीय संस्कृति के जीवन मूल्यों को पक्षघरता के साथ उद्घाटित करते हैं तो कपिला, महारानी अभया, राजा धात्री वाहन प्रतीक हैं युगीन कुचक्रों और भुलावे-छलावे की जीती-रचती मानसिकता के सुदर्शन सेठ को कपिला द्वारा शरीर के बाह्य सौन्दर्य को भोगने के लिए विवश किया जाना किन्तु बुद्धि-योग से सुदर्शन का बच निकलना, आहत स्त्री
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