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________________ तेरापन्थ का राजस्थानी प्रबन्ध-काव्य ताना-बाना बुना गया है । राजस्थानी काव्य-परम्परा में वीर रस की अदभुत अभिव्यंजना एक अनूठी विशेषता है उसे भरत चरित में भली भांति देखा जा सकता है । एक बानगी प्रस्तुत है सींहनाद ज्यू बोले सूरा रे, ते तो हर्ष विनोद मे पूरा घोड़ा कर रह्या छे ही सारा रे, त्यांरा शब्द लागा है प्यारा । हस्ती गुल जुलाट करता रे, ते अम्बर जेम बाजंता' रथ करे रह्या घणा घणारो रे, त्यांरा अनेक मिलिया छै थारो वाजा विविध प्रकार न बारे रे, जाणे आकाशे अंबर गाजै रूड़ा रूड़ा शब्द प्रचंजे रे, ते पूरतो चाले ब्रह्मंडो बल वाहण समुदाय छे वृन्दों रे, तिण सहित चाले नरिंदो । युद्ध जो एक चिरन्तन समस्या है, मानत्रता युद्ध की समस्या से आक्रांत रहती है । युद्ध की समस्या का निदान क्या हो ? युद्ध का दायित्व किसका ? क्यों सत्ता - शीर्ष पर बैठे लोगों के व्यक्तिगत स्वार्थ और अहं के कारण आम जन को युद्ध की हिंसा को भुगतना पड़ता है ? शांति की स्थापना के लिए क्या किया जाए ? जैसे प्रश्न जो काव्य की सृजन प्रेरणा के कारण समाधान का संधान के साथ-साथ समीक्ष्य कृति का महत् उद्देश्य भी हैं - राज कीजो जीतो जिको, हूं भदसू थांरी साख बीजा अनेदा लोकां भणी, कांय मरावो अन्हाख । २०५ अथवा स्वामी ऋषभदेव के मुख से दिलवाया गया यह कथन भी कथित सन्दर्भों की पुष्टि करता है प्रति बूझो रे, म्हें थाने दीधो राज तिण राज सू काज सीके, प्रति बूझो रे । खोस्यो जाय राज, ते राज न दियो थांने सही । खोस्यो जाय राज, ते राजन जाणो आपणो । सत्ता लोलुपों के प्रति यह प्रहार रचना को प्रासंगिक भी बनाता है । जब तक राज्य को अपनी निजी महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति का साधन मानेंगे तब तक हिंसा का क्रम चलता रहेगा । बिना लोभ लालच और अहं प्रतिरोपण के लोक कल्याण की ओर उन्मुख होना चाहिए, मानवीय कर्तव्यों का पालन किया जाना चाहिए । इस कथ्य को कवि ने दार्शनिक व्यंजना देते हुए लिखा है तन धन से परिवार, इहां का इहां रहसी सही परभव नावे लार, त्यासू गरज सरे नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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