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________________ तेरापंथ प्रबोध-एक अध्ययन १९७ लिखी शील री बाड़, रास टालोकर एकल री ढालां आगम रा आख्यान, थोकड़ा सावधान हो संभाला, हो सन्तां ! अपण जुग रा सर्वोत्तम सिरजणहार हो।" वे श्रम के देवता और अनुशासन के अधिष्ठाता थे इसी बात को प्रकाशित करती हैं ये पंक्तियाँ...' जीवन भर यायावर स्वामी.... .... १४ प्रतिदिन व्याख्यान गोचरी श्रम सहचार हो.. ... अन्तिम समय में आचार्य भिक्षु को अवधिज्ञान हो गया था। सात प्रहर के अनशन के साथ उन्होंने पंडित मरण का वरण किया । विवेच्य गीत भव्य जीवों के लिए संसार संतरण-समर्थ नौका के समान है । जीव मात्र को सांसारिक भोगों एवं भयंकर कष्टों से उपरमित कर धर्म-मार्ग में प्रतिष्ठापन एवं निर्वाण-शाश्वत शिव की प्राप्ति ही इसका उद्देश्य है । 'खुलग्यो अन्तःस्फुरणा रो अभिनव द्वार हो' जीव जगत् के अन्तद्वार का उद्घाटन ही कवि को अभिप्रेत है। जो काव्य की सुन्दरता का संवर्धन करे, सजाए उसे अलंकार कहते हैं । कवि ने स्थान-स्थान पर उपमा, रूपक, परिकर एवं स्वभावोक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग किया है। बालक भीखण के जन्म के स्वाभाविक वर्णन में स्वभावोक्ति अलंकार ध्वनित हो रहा है। राजस्थान गाम कंटालिय आषाढी तेरस आई, बल्लु शा दीपां घर जायो पुत्र फली है पुण्याई ।।६ अभिप्राय युक्त विशेषणों के माध्यम से गीतकार ने परिकार अलंकार का समीचीन प्रयोय किया है। मघवागणी के वर्णन में -आत्म-विजेता नवनचिकेता वीतराग री बानगी....। इसी प्रकार आचार्य भिक्षु के व्यक्तित्व को उजागर करने हेतु चर्चावादी कुशल प्रशासक मीमांसक संगायक हो"..." । अनुकूल रसों की पुन:-पुनः आवृत्ति अनुप्रास अलंकार का लक्षण है। तेरापंथ प्रबोध में अनेक स्थलों पर अनुप्रास की सुरम्य छटा गीत के सौन्दर्य की अभिवृद्धि कर रही है यथा ससुराल सहचरी सौभागण सुगणी बाई १४ जागी जागरणा जाण्यो जग निस्सार हो निर्मल निर्मायी निश्छल निरहंकार हो १० प्रस्तुत गीत में उपमान और उपमेय का साम्य अनेक बार उपमा अलंकार का उत्कृष्ट नमूना बन पड़ा है।। गीत के प्रारम्भ में-"मरुधर रा मंदार हो' के द्वारा आचार्य भिक्षु को उपमित किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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