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आचार्य भिक्षुकृत जम्बूचरित का सांस्कृतिक
अध्ययन
संस्कृति किसी भी राष्ट्र की उत्कृष्टतम विभूति होती है । राष्ट्रविशेष का जीवन-मरण, उसकी उन्नति - अवनति, उसकी प्रतिष्ठा अप्रतिष्ठा आदि तथ्य उसकी संस्कृति पर ही आधारित रहते हैं । जिस राष्ट्र की संस्कृति जितनी ही उदात्त और जनीन होती है वह राष्ट्र उतना ही गौरवशाली बनता है ।
समणी स्थितप्रज्ञा
भारतीय साहित्य में संस्कृति शब्द एक अर्वाचीन शब्द है । प्राचीनकाल में संस्कृति का अर्थ तो संस्कार से ही सम्बन्धित था । आगे चलकर इसे अंग्रेजी शब्द 'कल्चर' के अर्थ में प्रयोग किया जाने लगा । जहाँ तक संस्कृति की परिभाषा का प्रश्न है, संस्कृति ऐसी चीज है जिसे लक्षणों में तो हम जान सकते हैं किन्तु इसकी परिभाषा नहीं दे सकते । डॉ० रामजी उपाध्याय के मतानुसार 'संस्कृति वह प्रक्रिया है जिससे किसी देश के सर्वसाधारण का व्यक्तित्व निष्पन्न होता है । संस्कृति से मानव समाज की उस स्थिति का बोध होता है जिससे उसे सुधारा हुआ, ऊँचा, सभ्य आदि आभूषणों से आभूषित किया जाता है । शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक शक्तियों का विकास ही संस्कृति का मुख्य उद्देश्य है । '
उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि संस्कृति बाह्य और अभ्यन्तर दोनों तरह की स्थिति, परिष्कार और विकास का नाम है जिसमें मानसिक संस्कार, रीति-रिवाज, धार्मिक भावनाएं, लोक-विश्वास, शकुन-अपशकुन आदि प्रसिद्ध हैं ।
प्रस्तुत निबन्ध में आचार्य भिक्षु द्वारा रचित 'जम्बूकुमार चरित' के आधार पर सांस्कृतिक तत्त्वों का विश्लेषण किया गया है ।
सामाजिक रीति-रिवाज -
विवेच्य ग्रंथ में अनेक संस्कारों का उल्लेख मिलता है । जिनमें निम्नलिखित संस्कार प्रमुख हैं
१. जन्म संस्कार :- प्रस्तुत ग्रन्थ में जन्म संस्कार का उल्लेख मिलता है । राजगृह नगरी में ऋषभदत्त सेठ की पत्नी धारिणी के गर्भ में जब बच्चा
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