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"सुखदाई सहु गण भणी, खेतसी जी गुणखांन । भक्खू ऋष पासे भला, पके मते परधांन ॥
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प्रकृति विनय गुण कर प्रवर, सतजुग सरिसा संत । सतजुग नांम सुहांमणो, मोटा मुनी महन्त ।
तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
जयाचार्य ने आचार्य भिक्खू को शासनाधीश के रूप में स्वीकार किया है । उस सम्बन्ध में वे लिखते हैं
" शासन नाथ ज्यूं थया भिक्षु स्वाम,
दान दया रूड़ी रीत दीपाय,
जीव घणा रा थे सार्या जी काम ।
पंचमे आरे प्रगट्या मुनिराय || २
आचार्य भिक्खू को महानतम् सन्त मानते हुए उनके स्मरण की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए जयाचार्य लिखते हैं
" स्वामी भिखन जी सुखकारी रे,
त्यांरौ जाप जपो नर नारी, उत्तम ज्ञान क्रिया गुणधारी रे ।
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समरण कीधां बाध संपति, पामै सुख भरपूर । जय ब्रह्म ेन्द्र अच्युत सुख कारण, दुर्गति होवें दूर ||'
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अपने काव्य नायक आचार्य भिक्खू को अलौकिक व्यक्ति के रूप में जयाचार्य ने प्रस्तुत किया है । उसके साथ अपना जीवनाधार भी स्वीकार किया है । स्वामी भिक्खू के प्रति यहाँ जयाचार्य का दास्य भाव प्रकट हुआ है इसी कारण भिक्खू को सर्वस्व माना है और उनके निरंतर स्मरण पर जोर दिया है—
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"म्हारे तो मन में स्वामी बसिया,
अहो निशि ध्याऊँ ध्यान जी म्हारै । लीजै नित्य प्रति नाम जी, म्हारै समरूं आठू याम जी ।"" आचार्य भिक्खू का यह निरन्तर स्मरण इस तथ्य को सिद्ध करता है कि जयाचार्य की कीर्ति-गाथा के शीर्ष पुण्य आचार्य भिक्खू ही हैं ।
'भारीमाल गणि गुण वर्णन' में गणि भारीमाल के जीवर वर्णन के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व वैशिष्ट्य को भी जयाचार्य ने प्रस्तुत किया है और सन्त श्रृंखला में उनके शिशिष्ट स्थान को परिलक्षित किया हैगुण छै भारी, त्या नै ओपमा अधिकी आई ।
"भारीमालजी में
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