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________________ उपदेश रत्न कथाकोश : एक विवेचन १४५ को त्याग साधु जीवन अपनाने वाले ये सभी पात्र सत्कर्म के प्रभाव से 'देवलोक' या 'मोक्ष' के अधिकारी बनते हैं। साधु जीवन अपनाने के इस प्रसंग में यह बात विशेष रूप से ध्यातव्य है कि जैन धर्मावलम्बी रचनाकारों द्वारा सजित साहित्य में जैन तीर्थंकरों और उनके प्रसिद्ध अनुयायियों को ही जैन भागवती दीक्षा लेते हुए चित्रित नहीं किया गया है वरन् पुरुषोत्तम रामादि अवतारों और उनसे सम्बन्धित अनेक लोगों को भी जीवन के उत्तरकाल में दीक्षित होते हुए चित्रित किया गया है। उपदेश रत्न कथाकोश में भी ऐसी शताधिक कहानियाँ हैं, जिनके कथानायक भरपूर ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीकर, जीवन के उत्तरार्द्ध में जैन भागवती दीक्षा अंगीकार कर आत्म-कल्याण में प्रवृत्त हुए हैं। जैन कहानियों की एक और सामान्य प्रवृत्ति शासन अनुरागी और शासन-द्वेषी देवताओं के माध्यम से कथानक को गतिशील और रोचक बनाने की रही है । इन कहानियों में जहाँ जैन शासन अनुरागी देवता जैन धर्म के सिद्धांतों पर चलने वाले साधु या श्रावक की सहायता करते हैं, वहीं जैन शासन-द्वषी देवता अपनी सहज ईर्ष्या बुद्धि से प्रेरित होकर जैन धर्म के अनुयायी एवं अनुरागी श्रावकों एवं साधुओं को नाना मानसिक क्लेश देकर उन्हें स्वधर्म से विचलित करने की कोशिश करते हैं, यद्यपि ऐसे सारे प्रसंगों में अन्त में ये द्वषी देवता मुँह की खाकर लौटते हुए चित्रित किये गये हैं। जैन कहानियों की एक और प्रवृत्ति, जो हमारा ध्यान आकर्षित करती है, वह है पूर्व भव-वृत्तांत कथन की प्रवृत्ति । अनेक कहानियों में ऐसे प्रसंग या स्थल आते हैं जहाँ कोई प्रमुख पात्र अपने वर्तमान जीवन के अप्रत्याशित सुख या दुःख के हेतु को नहीं जान पाता है । ऐसे क्षणों में उसके मन में या उससे सम्बन्धित अन्य किसी पात्र के मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि उस पात्र विशेष के तात्कालिक सुख या दुःख का हेतु क्या है। और इसी समस्या के समाधान हेतु किसी केवलज्ञानी को वहाँ उपस्थित किया जाता है । तब वह 'केवलज्ञानी' उसके पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाकर जिज्ञासा का शमन करता है। इस प्रकार पूर्वजन्म-वृत्तांत कथन के इस शिल्प के माध्यम से कथा को अपेक्षित विस्तार ही नहीं दिया जाता है, अपितु पाठक के कुतूहल भाव को भी बढ़ाया जाता है। कतिपय कहानियों में 'केवली' द्वारा पूर्व-भव वृत्तान्त कथन के स्थान पर स्वयं पात्र द्वारा 'जाति-स्मरण-ज्ञान' के माध्यम से अपने पूर्वजन्म के वृत्तांत को जान लेने के कथा-अभिप्राय का प्रयोग भी होता है। उक्त जैन कथा-प्रवृत्तियों से इतर भारतीय कथा साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों का निर्वाह भी इन कहानियों में यत्र-तत्र देखने को मिलता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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