________________
आचार्य भिक्षु की कृतियों का काव्यात्मक मूल्यांकन
राजस्थानी कवि आचार्य
1
विक्रम की १८ वीं - १९ वीं सदी के महान् भिक्षु का जीवन काल वि० सं० १७८३ से १८६० है । वे जन्मजात कवि थे । रीतिशास्त्र और अलंकारशास्त्र का विधिवत् प्रशिक्षण प्राप्त किए बिना ही कवित्व उनके अन्तःकरण में स्फुरित हो गया । काव्य के नियमोपनियमों के विज्ञाता न होने पर भी छन्द योजना, उक्ति वैचित्य और अलंकार विधान उनकी रचनाओं में बहुत स्वाभाविक है । सरस और सुबोधशैली में लिखी गई ५५ कृतियाँ उनकी विलक्षण काव्य-प्रतिभा की जीवंत साक्षियाँ है । उनकी अधिकांश कृतियाँ पद्यात्मक हैं । मेवाड़ी मिश्रित मारवाड़ी भाषा में बहता यह काव्य - निर्झर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देने वाला है । कहीं-कहीं गुजराती की हल्की पुट इसके माधुर्य में और भी रस घोल देती है । राजस्थानी के प्रचलित दोहा और सोरठा छन्द के अतिरिक्त विभिन्न राग-रागिनियों का भरपूर उपयोग उन्होंने अपने काव्य में किया है । रास, चौपाई, चोढ़ालिया, सिंध आदि सभी विधाओं में उन्होंने काव्य लिखे हैं ।
[ साध्वी निर्वाणश्री
काव्यकारों ने काव्य-निर्माण के मुख्य तीन हेतु बतलाये हैं -- प्रतिभा, निपुणता और अभ्यास | आचार्य भिक्षु की कृतियों में ये तीनों यत्र-तत्र दृष्टिगत होते हैं । तत्त्व, श्रद्धा, आचार आदि बीसों विषयों को उन्होंने अपनी लेखनी का विषय बनाया है । दार्शनिक विषयों के प्रतिपादन में उनकी प्रतिभा अतुलनीय है । विभिन्न दर्शनों को काव्यात्मक भाषा में प्रस्तुति देकर उन्होंने साहित्यिक क्षेत्र में एक नया स्थान बनाया है ।
दार्शनिक विषयों के प्रतिपादन में उनकी प्रतिभा अतुलनीय है । उनकी ब्याहुलो, सास-बहू रो चोढ़ालियो, सांमधरमी, सांमद्रोही रो ढाल, उरण री ढाल जैसी रचनाएं उनकी लौकिक विधाओं की पारगामिता की परिचायक हैं ।
काव्य की आत्मा के सम्बन्ध में आचार्यों ने जहां रीती को काव्य की आत्मा कहा है, वहां ध्वनि को प्रतिष्ठित करते हैं । श्री विश्वनाथ के आत्मा है। आचार्य भिक्ष की रचनाओं में हमें रीति ध्वनि और रस सबका
के विभिन्न मत । वामन आनन्दवर्धन इस आसन पर अभिमतानुसार रस काव्य की
Jain Education International
•
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org