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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
हैं । संवत् १८३४ आषाढ़ कृष्णा ११ शनिवार के दिन इसकी रचना की गई, ऐसा उल्लेख मिलता है। ३२. जुआ री ढाल
आगमों में सात व्यसनों का उल्लेख मिलता है जो व्यक्ति की ऊर्जा को समाप्त कर.अधोगामिता में धकेल देते हैं । जुमा भी उन्हीं का एक अंग है, जिसमें अधिक पाने की लालसा व्यक्ति को समग्रता से खाली कर देती है। इस रचना में आचार्य भिक्षु ने जुए के भीषण दुष्परिणामों की मौलिकता से प्रस्तुति दी है।
४ दोहे और ६१ गाथाओं का यह संग्रह संवत् १८५७ श्रावण शुक्ला ५ शनिवार को रचा गया। ३३. "विनीत-अविनीत की चौपाई"-.
विनय क्या ? विनय क्यों, विनय किसके प्रति ? आदि-आदि प्रश्न उत्तरित हुए हैं। प्रस्तुत कृति में मौलिक दृष्टान्त और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर विषय को समग्रता से समझाने का सफल प्रयत्न किया गया है । इस कति का मुख्य आधार है 'उत्तराध्ययनसूत्र' 1 आगम के आधार पर रचित यह कृति अपना अतिरिक्त वैशिष्ट्य रखती है। अविनीत की जीवन चर्चा का चित्र खींचते हुए आचार्य भिक्षु ने लिखा है
"कुहना कांना री कूतरी, तिण रेझरे कीडा राध लोही रे सगलै ठांम सं काढे हुड-हुड करे, घर में आवण न दे कोई रे, धिग-धिग अविनीत आत्मा। दूसरी ओर विनीत के बारे में लिखा है। "विनीत सूं गुरु प्रसन्न हुवै, तो आपे ग्यान अमूलजी तिण सं शिव रमणी वेगी वो, रहे शाश्वत सुख में झूलजी"
इस प्रकार यह कृति विनय के स्वरूप का मार्मिक विश्लेषण प्रस्तुत करती है। इस कृति में ८ ढालें, २ दोहे एवं कुल ३४२ गाथाएं हैं । ३४. तात्त्विक ढाला -
प्रस्तुत संग्रह में पांच ढालें हैं। सबका अपना स्वतंत्र विषय है। जैसे प्रथम ढाल में आदिनाथ, ऋषभ, भरत, अरिष्टनेमि आदि विशिष्ट व्यक्तियों का वर्णन है, जिन्होंने श्रामण्य स्वीकार कर अन्तिम लक्ष्य प्राप्त किया।
दूसरी ढाल में २४ दण्डकों की अपेक्षा से २३ पदवियों का मार्मिक विश्लेषण है।
तीसरी ढाल में 'ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः' का सघन विवेचन है । ज्ञान और क्रिया की सहचारिता को स्पष्ट अभिव्यक्ति देने के लिए अंधे और पंगु
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