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आचार्य भिक्ष की साहित्य साधना
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कुछ साधक अपनी निजी दुर्बलता के कारण सामूहिक चेतना के साथ जुड़ नहीं पाते । अहं की प्रबलता से वे एकाकी जीवन स्वीकार कर लेते हैं । उनके बारे में आचार्य भिक्षु ने लिखा है
"अभिमानी आपणपो मोटो मानतो रे, प्रबल मोह माहे, कार्य-अकार्य सुध सूझे नहीं रे । विवेक निकलते एक थाय रे ॥"
कुशील, पार्श्वस्थ स्वछन्द और संसक्त अकेले रहने वाले शुद्ध साधना नहीं कर सकते । इस सत्य को मार्मिकता से प्रस्तुति दी है इस कृति में । इसमें ८ ढालें और ३६ दोहे हैं । कुल गाथाएं २२६ हैं । १३. जिनाग्या री चौपाई-----
इस कृति का प्रतिपाद्य है-वीतराग भगवान के द्वारा प्रतिपादित धर्म ही वास्तविक धर्म है। वह फिर चाहे किसी नाम से पुकारा जाए। करणीय और अकरणीय में जिनाज्ञा का बड़ा महत्व है। साधक के लिए आज्ञा सर्वोपरी है जो भी भगवान की आज्ञा से बाहर धर्म की प्ररूपणा करते हैं, उनके मन की तर्क पूर्ण शैली से तीव्र आलोचना की है। मिश्र धर्म का भी खंडन कर धर्म का शुद्ध स्वरूप प्रगट किया है, जिसका सुन्दर और गम्भीर विवेचन है । कल्प और अकल्प की भी गहरी मीमांसा की है।
इस कृति में ५ ढालें, ३४ दोहे कुल २३५ गाथाएं हैं। रचनाकाल लगभग १८४० से लेकर १८५६ का अनुमानित है। १४. पोतिया बंध री चौपाई---
___ आचार और विचार भेद का इतिहास बहुत पुराना है। जितने विचार उतने मत और जितने मत उतने समुदाय । अपने-अपने अभिमत को प्रत्येक व्यक्ति विस्तार देना चाहता है।
- आचार्य भिक्षु के समय में जैनों के अनेक सम्प्रदाय थे। उन्हीं में कुछ प्रसिद्ध कुछ अप्रसिद्ध थे। एक सम्प्रदाय पोतियाबन्ध के नाम से प्रख्यात था । आचार्य भिक्षु जब गृहस्थ में थे, उस समय उनका पूरा परिवार पोतियाबन्ध सम्प्रदाय के प्रति आस्थाशील था। आचार्य भिक्षु ने निकटता से इस सम्प्रदाय की मान्यता का अध्ययन किया। इस कृति में आचार्य भिक्षु ने पोतियाबन्ध सम्प्रदाय के कुछ अर्थहीन अभिनिवेषों पर गहरी मीमांसा प्रस्तुत की है।
__ नमस्कार महामंत्र जैन मात्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंत्र है। प्रस्तुत सम्प्रदाय उसकी रचना में त्रुटि निकालता है। अपने अभिमत में वे कहते हैं ----सिद्धों से पहले अरहन्तों को नमस्कार करना युक्ति संगत नहीं है।
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