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________________ १२२ तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान प्राणी मात्र के विकास क्रम का भी कर्म एक सशक्त माध्यम है। आचार्य भिक्षु ने अपनी इस कृति में कर्मों के क्षय, क्षयोपशम से होने वाली उपलब्धियों का सूक्ष्मता से विवेचन किया है। इस कृति में पांच इंद्रियों के विषय की गम्भीर मीमांसा की है। इन्द्रियों की प्राप्ति क्षयोपशम भाव है। क्षयोपशम भाव और उदय भाव दोनों का अलग-अलग क्षेत्र है। इस तथ्य को उजागर करते हुए कहा है "उदेने क्षय उपशम भाव दोय छे, त्यांने एक कोई मत जाणो रे क्षय उपशम स्युं कर्म लागे नहीं, उदे भाव स्युं कर्म लागै आणो रे कुछ दार्शनिक इन्द्रियों की प्राप्ति को कर्मबन्ध का निमित्त मानते थे। उनकी अवधारणा में इन्द्रियां विषय ग्रहण के साथ राग-द्वेष के भाव तरंगित करती हैं । इस दृष्टि से इन्द्रियां सावध हैं "केई इन्द्रियां ने सावध करे, ते जिण मारग रा भणजाण" इन्द्रिय निरवद्य है। - इस तथ्य को सिद्ध करने के लिए कृति में अनेक सूत्रों की साक्षियाँ दी गई हैं। एक-एक विचारणीय बिन्दु का मार्मिक विश्लेषण किया है । इस कृति में कुल १५ ढालें तथा ९२ दोहे हैं। गाथाओं की संख्या ६९६७ है । इसका रचनाकाल वि० सं० १८४६ व १८४७ है। कृति के अध्ययन से यह अनुमानित होता है कि इसकी रचना विहरण काल में विविध भट्टों में हुई। ८. परजायवादी री चौपाई आचार्य भिक्षु के समय अनेक मतों का बाहुल्य था। पर्यायवादी भी उस शृंखला में एक था। पर्यायवादी मत नास्तिकवाद के अन्तर्गत आता था। उनके सिद्धांतानुसार जीव-अजीव का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। उनकी आस्था को अपने शब्दों में अभिव्यक्ति देते हुए आचार्य भिक्षु ने लिखा "बाप नहीं जीव बेटो नहीं जीव, वले जीव नहीं सगलो परिवार रो जीव जनमें नहीं जीव मरें नहीं, पिण जीव नहीं भोगवे विकार रो" पर्यायवादी जीव के भेद-प्रभेदों को भी मान्य नहीं करते थे। भावों के शाश्वत-अशाश्वत, पर्याप्त-अपर्याप्त आदि भेद और बाल, युवा, प्रौढ़ आदि अवस्थाएं मात्र काल्पनिक हैं। आचार्य भिक्षु ने आगमों की अनेक साक्षियाँ देकर जीव के अस्तित्व का प्रतिपादन किया है। भगवती सूत्र का प्रसंग उद्धृत करते हुए लिखा है । गौतम स्वामी ने भगवान से चार प्रश्न किये-~ (१) क्या जीव आदि अनन्त रहित है ? (२) क्या जीव आदि सहित और अन्त रहित है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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