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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
नहीं जाते वे नैसर्गिक होते हैं । आ० भिक्षु इसके जीवंत निदर्शन हैं। हृदय में उठने वाले विचारों को उन्होंने कविता में बाँध दिया। आस-पास, परिसर में जहाँ कुछ वैशिष्ट्य नजर आया उसे अपनी कलम का विषय बना लिया।
आचार्य भिक्षु की अधिकांश रचनाएं राजस्थान में प्रचलित विभिन्न राग-रागिनियों में निबद्ध हैं। सोरठों और दोहों का प्रयोग कई स्थानों पर हुआ है । गीतों के माध्यम से गम्भीर दार्शनिक विषयों को भी जन भोग्य बना दिया है। १. नवपदार्थ
सृष्टि के नियामक दो तत्त्व हैं-जीव और अजीव । नौ तत्त्वों में वणित आश्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये जीव की ही अवस्थाएं हैं। और पुण्य-पाप, बन्ध अजीव की । षड्-द्रव्यों में पाँच द्रव्य अजीव हैं । अतः उनकी मीमांसा अजीव पदार्थ के अन्तर्गत समाविष्ट है।
__ आचार्य भिक्ष ने १३ ढालों में नौ पदार्थों का क्रमबद्ध एवं विशद विवेचन किया है। सहज-सरल भाषा में तत्त्वों की गहनता को सरलता से समझा दिया है । नौ पदार्थ के विवेचन में ही द्रव्य षट्क का वर्णन भी स्वतः समाहित हो गया है । जैन तत्त्व-मीमांसा व आचार-मीमांसा दोनों की दृष्टि से इस कृति का वैशिष्ट्य है । २. श्रावक के बारह व्रत
पूर्णता और अपूर्णता की दृष्टि से मुमुक्षु को दो वर्गों में विभाजित किया गया है। पहला वर्ग संयमी का है, जो गृही जीवन में पूर्ण संयम का जीवन स्वीकार कर लेते हैं। पांच महाव्रतों की अखंड अनुपालना उनका उद्देश्य होता है । तथा दूसरा वर्ग व्रतों को यथाशक्य स्वीकार करता है, जिन्हें श्रावक कहा जाता है !
श्रावक जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। साधना के परिप्रेक्ष्य में उसके लिए १२ व्रतों का विधान है। आचार्य भिक्षु ने इस कृति में श्रावक के १२ व्रतों का विस्तृत और सरल विवेचन किया है । एक-एक व्रत को समग्रता से समझाने का गहरा प्रयत्न किया है। इसमें कुल १३ ढालें और ५२ दोहे
३. ब्याहुलो
विवाह सामाजिक व्यवस्था का एक क्रम है, जिसमें दो व्यक्ति एक दूसरे के प्रति समर्पित होते हैं । इस अवसर पर अनेक लौकिक प्रथाएं प्रचलित हैं। इस कृति में आचार्य भिक्षु ने विवाह सम्बन्धी लौकिक क्रियाओं को परमार्थ दृष्टि तक ले जाकर प्रतिपादित किया है । कृति के उद्देश्य की चर्चा
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