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________________ सापेक्षता के कोण में बदल देते हैं । परीक्षा के लिए उपनिषद् की एक समस्या दी गई 'अणोरणीयान् महतो महीयान् ।' कालिदास ने समस्यापूर्ति करने हेतु तुरंत श्लोक बना दिया-- यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, करेण धृत्वा शपथं करोमि । योगे वियोगे दिवसोंगनायाः, अणोरणीयान् महतोमहीयान् ।। —'यह परम पवित्र जनेऊ हाथ में लेकर सौगन्ध खाते हुए कहता हूं कि जब पत्नी का योग होता है तो दिन छोटा और वियोग में बड़ा लगता है ।' आईन्स्टीन और कालिदास में काल का लम्बा अन्तर होने पर भी उनका उत्तर एक ही है । सत्य का प्रवाह सदा एक . प्रकार का चलता जाता है । सापेक्षता का हृदय जैनदृष्टि से इस पर विचार करते हुए सापेक्षवाद को कैसे समझें ? सबसे पहले स्थूल रूप से एक वस्तु का विचार करना चाहिए । दूध का उदाहरण लें । एक व्यक्ति ने संकल्प किया कि मैं दूध के सिवाय कुछ नहीं खाऊंगा । वह व्यक्ति दही नहीं खा सकता और दही के सिवाय कुछ नहीं खाने वाला दूध नहीं पी सकता है । गोरस नहीं खाने वाला दूध, दही, घी, छाछ कुछ भी नहीं खा सकता क्योंकि ये गोरस के रूप हैं। दही और दूध दोनों में गोरस है, यह सापेक्ष-दृष्टि है । किसी को शत्रु अथवा मित्र मानना अज्ञान-दृष्टि है । आचार्य पूज्यपाद ने बहुत सुंदर लिखा है- "तुम कहते हो वह मेरा शत्रु है; तो क्या तुम उसे सर्वांशतः जानते हो ? केवल शरीर और ऊपर की स्थिति को जानते हो । तुम जानते ही नहीं तब कोई तुम्हारा शत्रु या मित्र कैसे होगा और जान लेने पर वह न तुम्हारा शत्रु होगा, न मित्र ।" यह सापेक्ष-दृष्टि है, जिससे देखने का क्रम बदल जाता है। व्यवहार दृष्टि : निश्चय दृष्टि मेरे हाथ में कपड़ा है जिसे आप सफेद कहेंगे किन्तु यह व्यवहार-दृष्टि से कथन है । निश्चय की दृष्टि से इसमें सारे रंग विद्यमान हैं । रेत में भी मिठास का अंश होता है, यह पढ़कर अटपटा लगता है, किन्तु अलकतरे से भी जब मिठास निकल सकती है तो यह क्या कठिन है। स्याद्वाद और अनेकान्त से ही सह-अस्तित्व, सापेक्षता और स्वतंत्रता का विकास हुआ है । स्याद्वाद के विषय में उत्तरवर्ती साहित्य बहुत लिखा गया है। अनेकांत सिद्धान्त का नाम है और स्याद्वाद है कथन की पद्धति और प्रकार | तीन पद्धतियों का विकास हुआ--- नयवाद, स्याद्वाद और दुर्नयवाद । समग्र वस्तु जाननी है या उसका एक पहलूये दो दृष्टियां हैं । वस्तु को हम समग्रता से जान नहीं पाते । आप रोज रोटी खाते हैं किन्तु क्या आप उसे जानते हैं ? आपने रोटी का रूप जाना है किन्तु क्या वही मात्र रोटी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003134
Book TitleSamasya ko Dekhna Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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