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________________ अहिंसा : शक्ति संतुलन भय और आकांक्षा भय का होना और आकांक्षा का होना दो नहीं हैं। जिसके मन में कोई आकांक्षा नहीं है उसके मन में कोई भय नहीं है, यह स्थापना तर्क से सर्वथा अनाहत है । जीवन की आकांक्षा नहीं है और मौत का भय है, क्या इस उक्ति में विरोधाभास नहीं है ? दुःख का भय उसे कब सताएगा, जो सुख की आकांक्षा से मुक्त हो चुका है ! निन्दा का भय उसी को आक्लांत करता है, जिसके मन में प्रशंसा की भूख है । मैं दूसरों से इसलिए डरता हूं कि उनके मन में अपनी पूर्णता का प्रतिबिम्ब देखने की ईप्सा मेरे अन्तःकरण में विद्यमान है । मैंने आकांक्षा के धागे को जितना बाहर की ओर फैलाया है उतना ही भय का जाल मैंने बुना है । मुझे भय है कि उस धागे को तोड़कर मैं जी नहीं सकता। इस भय का जन्म आकांक्षा से उत्पन्न भय से हुआ है । इसी भय ने मेरी वास्तविक उपलब्धि पर आवरण डाल रखा है । आकांक्षा का नहीं होना सबसे बड़ी उपलब्धि है। सचाई यह है कि आकांक्षा के धागे को तोड़कर मैं जो पा सकता हूं, वह उसके अस्तित्व में नहीं पा सकता । पूर्णता का अर्थ पाना कुछ नहीं है । जो प्राप्य है, वह अन्तस् में प्रस्थापित है । किन्तु बाहर से पाने की आकांक्षा ने कृत्रिम भूख पैदा कर रखी है । मैं जो भी खाये जा रहा हूं, सब स्वाहा हो रहा है और भूख बढ़ती जा रही है । यही मेरी अपूर्णता है। पूर्णता का अर्थ है आकांक्षा का न होना । आकांक्षा के न होने का अर्थ है भय का न होना । भय के न होने का अर्थ है अहिंसा का होना । ५९ मेरे मन में आकांक्षा है, उससे उत्पन्न भय है और मैं मानता हूं कि मैं अहिंसक हूं, क्या ऐसा हो सकता है ? जो अपने को अहिंसक मानता है और अहिंसा के पथ पर निरन्तर गतिशील रहता है, वह आत्मालोचन से विमुख नहीं हो सकता । व्यवहार की भूमिका में दोष का आरोपण दूसरों पर करना और अपनी पूर्णता पर आवरण डालते जाना सम्मत है किन्तु अहिंसा की पार्श्वभूमि में यह सब बदल जाता है । इस बदली हुई स्थिति में ही अहिंसा की शक्ति प्रकट होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003134
Book TitleSamasya ko Dekhna Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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