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प्रस्तुति
विचार और निर्विचार-ये चेतना की दो अवस्थाएं हैं । हर मनुष्य विचार से बंधा हुआ है । जितने मनुष्य, उतने विचार, इस प्रतिपाद्य में कोई असत्य नहीं है । स्वतन्त्रता से जुड़ी हुई है विचार की भिन्नता, इसलिए विचारों को एक करने का प्रयत्न स्वतंत्रता की सीमा में हस्तक्षेप है।
एकता के प्रयत्न का अमोघ सूत्र है निर्विचार होना । जहां विचार निर्विचार में विलीन हो जाते हैं, वहां सत्य समग्र होकर प्रकट होता है । अध्यात्म सत्य की खोज और सत्य की उपलब्धि का राजमार्ग है । प्रस्तुत पुस्तक में अध्यात्म से अभिसिक्त विचार पल्लवित हुए हैं, इसलिए इनमें समन्वय को खोजा जा सकता है, आग्रह को नहीं । अनेकान्त या सापेक्ष एकान्त को खोजा जा सकता है, निरपेक्ष को नहीं । समस्या को देखने की कला है, सापेक्षता का दृष्टिकोण ।
इस दुनिया में सुख और दुःख का चक्र चलता है । संभवतः आदमी सुख कम भोगता है, दुःख अधिक । इसलिए भोगता है कि वह समस्या को देखना नहीं जानता। समस्या आसन बिछाकर बैठ जाती है । यदि तीसरा नेत्र जागृत हो, दुःख अपने आप कम होगा । दुःख को कम करने का महामंत्र है समस्या को देखना ।
मुनि दुलहराजजी साहित्य-संपादन के कार्य में लगे हुए हैं । वे इस कार्य में दक्ष हैं । प्रस्तुत पुस्तक के संपादन में मुनि घनंजयकुमारजी ने निष्ठापूर्ण श्रम किया है।
-आचार्य महाप्रज्ञ
अध्यात्म-साधना केन्द्र छतरपुर रोड, मैहरोली नई दिल्ली ११० ०३०
१ अगस्त १९९४
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