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________________ लोकतन्त्र और नागरिक अनुशासन सारी इच्छाओं का केन्द्र मन है और मन की इच्छा का केन्द्र है स्वतन्त्रता । मन अपनी इच्छा से चलना चाहता है। वह अपने क्षेत्र में दूसरों का हस्तक्षेप नहीं चाहता । यह सार्वभौम स्वतन्त्रता मन का शाश्वत स्वभाव है । व्यक्ति यदि अकेला ही होता है तो वह अपनी सार्वभौम स्वतंत्रता का उपयोग कर पाता लेकिन आज वह अकेला नहीं है। वह सामाजिक जीवन जी रहा है। इसलिए उसकी स्वतंत्रता सीमित है | चाहे अनचाहे उसमें दूसरों का हस्तक्षेप भी होता है । इसका अर्थ 1 यह है कि सामाजिक जीवन स्वतंत्रता और परतंत्रता का मिश्रित रूप है । क्या वह जनतंत्र है ? प्रजातंत्र व्यक्ति को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता देता है । किन्तु आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना क्या सामाजिक राजनैतिक स्वतन्त्रता फलित होती है ? गरीबी के कारण न जाने कितने लोग आज भी अनेक परतन्त्रताओं या विवशताओं से जकड़े हुए हैं । चिन्तन की स्वतन्त्रता के बिना भी ऐसा ही होता है। अशिक्षित लोग भी विवशता की पकड़ से मुक्त नहीं होते । मैं जिस भाषा में सोचता हूं। उसमें जनतन्त्र का स्वरूप कुछ दूसरा है, वर्तमान स्वरूप से भिन्न और बहुत भिन्न । मैं निर्वाचन पद्धति को देखता हूं तो लगता है यह जनतन्त्र है और जब शासन प्रणाली को देखता हूं तो लगता है कि यह कठोर राजतन्त्र है । जिस शासन में नियन्त्रणों का अधिक भार, शासन का अधिक दबाव और कानून का अधिक विस्तार हो, क्या वह जनतन्त्र हो सकता है ? जनतंत्र और मनुष्य का स्वभाव सीमित नियन्त्रण, सीमित दबाव और सीमित कानून – इनका समन्वित रूप जनतन्त्र | असीम इच्छा, असीम प्रयत्न और असीम उच्छृंखलता - इनका समन्वित रूप मनुष्य का स्वभाव । प्राकृतिक रूप में मनुष्य-स्वभाव और जनतन्त्र की पद्धति में मेल नहीं है, किन्तु उनका मेल बिठाया जाता है । मनुष्य कुछ स्वभाव से बदलता है और कुछ जनतन्त्र । नियन्त्रण का थोड़ा विस्तार और इच्छा का थोड़ा संकोच, दबाव का थोड़ा विस्तार और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003134
Book TitleSamasya ko Dekhna Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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