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________________ अशान्ति की समस्या १३५ सभ्यता या बर्बादी आज अर्थ को इतनी अधिक मान्यता दे दी गई है कि उसके आगे कुछ सोचने को शेष ही नहीं रह जाता है । ईश्वर, आकाश एवं मनुष्य की तृष्णा, ये तीन चीजें असीम मानी गई हैं । आज के लोगों ने ईश्वर को उखाड़ फेंका, आकाश को असीम नहीं माना परन्तु अपनी तृष्णा को असीम ही रहने दिया | तृष्णा का विस्तार अधिक हुआ है, कम नहीं। आज के मनुष्य को जन्म से जो विचार, जो धारणाएं प्राप्त होती हैं, उनके साथ आत्मानुशासन जैसी बात जुड़ी ही नहीं है | धर्म की तो लोग मखौल उड़ाते हैं किन्तु आदिवासी जातियों में आज भी नैतिकता अधिक मिल सकती है । लोक कला मण्डल के संस्थापक श्री सांभरजी ने बताया- भारत की प्राचीन संस्कृति का दर्शन आदिवासियों में ही हो सकता है। आधुनिक सभ्यता के लोग उन्हें सभ्य बनाने जाते हैं परन्तु मेरे विचार से वे भारतीय संस्कृति का अन्त करना चाहते हैं । दक्षिणी अफ्रीका के एक विद्वान् ने लिखा— हम यहां के आदिवासियों को सभ्य नहीं बना रहे हैं बल्कि उन्हें बर्बाद कर रहे हैं । आज की नयी सभ्यता के लोग प्राचीन चीजों को अंधविश्वास कहकर मखौल उड़ाते हैं परन्तु सारी चीजे अंध विश्वास ही नहीं हैं । ग्रहों के साथ भारतीय ज्योतिष में हीरे-सोने का सम्बन्ध बताया गया है और इसकी पुष्टि वैज्ञानिक भी आज कर रहे आज का बुद्धिवाद भी अशान्ति का एक कारण बन रहा है । यदि आप जीवन में शान्ति चाहते हैं, सुख की कल्पना साकार करना चाहते हैं तो अपने मन पर नियंत्रण करिए । सुख तीन प्रकार होता है- शारीरिक सुख, इन्द्रिय सुख और मानसिक सुख । शारीरिक सुख आपको प्रिय है । इसे प्राप्त करने के लिए आप काफी सचेष्ट भी रहते हैं । इन्द्रियों के सुख के लिए भी आप बहुत ही प्रयत्नशील रहते हैं परन्तु मानसिक सुख की ओर आपका ध्यान नहीं जाता । आप मान लेते हैं कि यदि शारीरिक सुख एवं इन्द्रियसुख की प्राप्ति हुई तो मानसिक सुख स्वतः प्राप्त हो जाएगा। यह मूल में ही भूल है । आप यदि मन को मालिक मान कर चलेंगे तो आपको सुख की अनुभूति कदापि नहीं हो सकती । हां, सेवक मानने से सुख अवश्य प्राप्त होगा । मन चाहता है कि सुख मिले परन्तु यदि उस पर अधिकार नहीं किया गया तो सुख नहीं मिल सकता । यदि आप मन को अपने नियंत्रण में रखेंगे तो सुख का समुद्र लहराएगा, शान्ति मिलेगी। मन को सेवक मानने पर इन्द्रियां स्वयं सेवक बन जाएंगी, दुःख नाम की काई चीज ही नहीं रह जाएगी। यह स्थिति तभी होगी जब मन को मालिक मानकर नहीं, सेवक मानकर चलेंगे । चन्द्रमा की सैर करने से भी अधिक सुख की अनुभूति इसमें होगी । मन को सेवक माने, स्वामी नहीं भगवान महावीर ने कहा- बारह मास का दीक्षित साधु सारे पौद्गलिक सुखों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003134
Book TitleSamasya ko Dekhna Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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