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________________ धर्म की समस्या : धार्मिक का खंडित व्यक्तित्व १३१ रही है । दूसरे में शास्त्रीय वाक्यों का आवरण है । व्यक्ति को जहां धर्म की गहराई तक, अध्यात्म तक पहुंचना चाहिए था नहीं पहुंच रहा है और इसीलिए परिवर्तन नहीं आ रहा है । यदि आध्यात्मिकता आ जाए तो शायद ऐसा नहीं होगा। विनोबा बहुत बार कहते- अब धर्म की जरूरत नहीं है । एक विज्ञान रहेगा और एक अध्यात्म रहेगा । दो ही चीजें रहनी चाहिए । इसमें बहुत सचाई है, क्योंकि धर्म क्रियाकांडों का जमघट-सा हो गया है ! अन्ना साहब आचार्यश्री के पास आये । उन्होंने कुछेक प्रश्न रखे । उन्होंने कहा- धर्म के विषय में आज की धारणा ऐसी बन गई है कि उसमें परिवर्तन लाने की बात नहीं रह गई है । आचार्यश्री ने कहा- "मैं इसे स्वीकार करता हूं, क्योंकि धर्म इतना रूढ़ हो गया है कि अब उसमें अवकाश नहीं रहा है कि कुछ किया जा सके । धर्म था सत्य की शोध के लिए परन्तु असत्य का पोषण करने में आज की धर्मवादी धारणा का बहुत बड़ा हाथ है अन्यथा 'ये राजनैतिक' और 'ये समाजनैतिक' यह अलगाव नहीं होता । आज एक राजनैतिक व्यक्ति अपने को धार्मिक क्यों नहीं मानता ? और एक धार्मिक व्यक्ति राजनीति और समाजनीति से सर्वथा अछूत । कैसे रह सकता है ? इनकी सम्बद्धता है। मनुष्य के एक ही व्यक्तित्व में धर्म, अर्थ, समाज आदि सारी चीजें एकरस होकर गुजरती हैं। जीवन का द्वैध उनका प्रश्न था-- 'आज आदमी दो घंटा उपासना कर लेता है और फिर वह छुट्टी पा लेता है । वह समझता है अब तो सारा दिन काम करने के लिए है ।' मैंने कहा- 'गुरुदेव ने बहुत मार्मिक शब्दों में इस पर लिखा है । उसका आशय है कि एक ही आदमी एक घंटा तो भक्त प्रह्लाद बन जाता है और दूसरे घंटे में हिरण्यकश्यप बन जाता है । देखने वाला समझ नहीं पाता कि जब उसे पूजा के स्थान में, मंदिर में, धर्मस्थान में साधुओं के पास देखता है तो कल्पना करता है कि शायद प्रह्लाद भी ऐसा भक्त हुआ था या नहीं । उसी व्यक्ति को जब आफिस में, कार्यालय में, दूकान में देखता है तो कल्पना करता है कि शायद हिरण्यकश्यप भी इतना क्रूर हुआ था या नहीं । एक ही व्यक्ति में एक ही दिन में जो इतना द्वैध मिलता है उसके जीवन में धर्म कहां है ? गुरुदेव इस विषय में कहा करते हैं—एक होता है श्वास और एक होता है भोजन । हम समूचे दिन भोजन नहीं करते । दिन में दो बार खाते होंगे । कोई चार बार भी खा लेता होगा | चाय-कॉफी पीने वाले पांच-सात बार खा-पी लेते होंगे । आखिर यह तो नहीं है कि निरन्तर खाते ही रहते हैं । यदि निरन्तर खाते ही रहें तो बीमार पड़ जायेंगे । किन्तु क्या सांस लिए बिना रह सते हैं ? कहा जाए-- पांच मिनट साँस मत लो तो शायद नहीं रह सकेंगे। दो मिनट रहना भी बड़ा कठिन है । हमारा धर्म श्वास की तरह हो । अध्यात्म हमारा श्वास है और उपासना, पूजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003134
Book TitleSamasya ko Dekhna Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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