SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यदि मनुष्य धार्मिक होता १०५ इतिहास है। व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के अपहरण या अधिनायकवाद का आधार व्यक्ति का स्वार्थविस्तार और उससे उत्पन्न क्रूरता है । मनुष्य अप्रमाणिक बनता है, खाद्य-वस्तुओं में मिश्रण करता है, शोषण करता है, दूसरों के हितों की उपेक्षा करता है, स्वल्पतम लाभ देकर अति लाभ लेता है; ये दोष जन्म नहीं लेते, यदि मनुष्य क्रूर नहीं होता । यदि मनुष्य असहिष्णु नहीं होता बहुत लोग ऐसे हैं, जो दूसरों को सहन नहीं कर सकते । वे अपनी मान्यता, अपने चिंतन और अपनी कार्य-पद्धति को सर्वोपरि महत्त्व देते हैं। अपने से भिन्न मत को सुनते ही उबल उठते हैं। पारिवारिक कलह इसलिए होता है कि एक-दूसरे की स्वतन्त्र रुचि या भूल को सहन नहीं करते । जातीय-कलह की उत्पत्ति का भी यही कारण है । दूसरा उचित परामर्श देता है उसे सुनने की भी क्षमता नहीं होती । दूसरों के शिक्षा-वचनों को सुनने की भी क्षमता नहीं होती । दूसरों के शिक्षा-वचनों को सुनने की वृत्ति नहीं-जैसी है । बहुधा उत्तर होता है—मैं तुमसे अधिक जानता हूं। बहुत छोटी बात को लेकर लड़ लेते हैं, गालियां देते हैं, तिरस्कार करते हैं, सम्मानयोग्य व्यक्तियों का सम्मान नहीं किया जाता । सामुदायिक शक्ति के उपयोग से वंचित रहते हैं, दल-बंदी का प्रसार होता है, एक-दूसरे को गिराने का यत्न करते हैं, अपनी बात रखने की धुन में तथ्यों की तोड़-मरोड़ की जाती है---ये दोष जन्म नहीं लेते, यदि मनुष्य असहिष्णु नहीं होता । यदि मनुष्य सामाजिक होता - क्रूरता और असहिष्णुता—ये दोनों असामाजिक तत्त्व हैं । समाज में रहने पर भी जो क्रूर है, असहिष्णु है, वह सामाजिक प्राणी नहीं है । मनुष्यों का समाज जैसे पत्थरों का ढेर नहीं है। वह अनुभूतिशील चेतनावान् प्राणियों का समुदाय है । उन सबमें प्रियअप्रिय का मनोभाव, सुख-दुःख का संवेदन, अनुकूल-प्रतिकूल स्थिति का प्रभाव, क्रिया का मनोभाव, क्रिया आदि-आदि तत्त्व हैं । जो मनुष्य अपनी प्रिय,सुखद और अनुकूल परिस्थिति बनाने के लिए दूसरों के लिए अप्रिय, दुःखद और प्रतिकूल परिस्थिति का निर्माण करता है, उसे क्या सामाजिक प्राणी कहा जा सकता है ? मनुष्य-मनुष्य में बुद्धि-बल और क्रियात्मक शक्ति का तारतम्य है । एक बुद्धिमान् आदमी कम बुद्धि वाले लोगों को ठगता है, एक शक्तिशाली व्यक्ति, दुर्बल व्यक्तियों को अभिभूत करता है, क्रियात्मक शक्ति का दुरुपयोग कर दूसरों को बेकार करता है ये दोष जन्म नहीं लेते, यदि मनुष्य सामाजिक होता । यदि मनुष्य धार्मिक होता धर्म का स्वरूप समता है । जिसमें समभाव नहीं है, राग-द्वेष या प्रिय-अप्रिय में. तटस्थ दृष्टिकोण नहीं है, वह धार्मिक नहीं है । सब आत्मा समान हैं—यह धार्मिक मान्यता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003134
Book TitleSamasya ko Dekhna Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy