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________________ १०२ समस्या को देखना सीखें शब्दों के जाल में उलझा है आदमी धार्मिक का पहला कर्तव्य होना चाहिए पवित्रता की ओर प्रयाण । पवित्रता के बिना धार्मिकता टिक नहीं सकती । शब्दों के जाल और रटी-रटाई बातों मे धार्मिक फंसा हुआ है । अपना अनुभव जोड़ने की बात उसे नहीं आती है, दूसरों की कही-सुनी बातों को तोते की तरह रट रहा है । आवश्यकता है—जानी हुई बातों को अनुभव में उतारे । एक साधु ने सद्गृहस्थ को 'सोऽहं' का जाप बताया क्योंकि सन्त अद्वैतवादी थे। कुछ दिनों के बाद द्वैतवादी संत आए और उन्होंने जब यह मन्त्र सुना तो नाराज होकर उस मन्त्र के पीछे दो अक्षर जोड़कर 'दासोऽहं' जपने का आदेश दिया । थोड़े दिनों के बाद पुनः अद्वैतवादी संत आए और 'दासोऽहं' जपते देखकर कहा--"यह क्या कर रहा है, मूर्ख ! इसे ठीक कर और कह—'सदासोऽहं' ।' बेचारा किसान 'सदासोऽहं' जपने लगा द्वैतवादी संत भी वापस पहुंचे । मंत्र की दुर्दशा देखकर उन्हें दया आ गई और बोले-"नादान ! तू भगवान नहीं है | इस मंत्र के पीछे एक 'दा' और जोड़कर जाप कर—दास-दासोऽहं । मार्मिक चित्रण किसान ‘सोऽहं' से चलकर 'दासदासोऽहं' तक आ गया । इस कहानी में आज के धार्मिक का मार्मिक चित्रण किया गया है । वह दूसरों के चिन्तन पर चलना चाहता है । अपनी आँच पर तपाए सोने की तरह उपयोग नहीं करता, अपने अनुभव-चिन्तनमनन का प्रयोग नहीं करता । अपनी अनुभूति के साथ सम्बन्ध जोड़े बिना, रटी-रटाई बातें सुनकर धार्मिक बनने का अहं करना खतरनाक है। __ लोग धर्म करते जाते हैं किन्तु क्या पीछे मुड़कर कभी देखते भी हैं, सचमुच धर्म कर रहे हैं या धर्म के नाम पर कुछ और ही हो रहा है ! धर्म किया और आनन्द तथा शान्ति मिली तब तो ठीक है अन्यथा धर्म के नाम पर उसकी छाया का सेवन हो रहा है । यदि धर्म करने के बाद भी शक्ति और तेज नहीं बढ़ा, वही कायरता मौजूद है तो पीछे मुड़कर देखने की जरूरत है । परिणाम धर्म का धर्म के तीन परिणाम आते हैं : १. चैतन्य अथवा ज्ञान का विकास | २. आनन्द का विकास । ३. शक्ति का विकास । चैतन्य, आनन्द और शक्ति- इन तीनों का विकास हो रहा है तो समझें कि धर्म हो रहा है, अन्यथा नहीं । राग-द्वेष की अल्पता का होना ही धर्म है। धर्म के विषय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003134
Book TitleSamasya ko Dekhna Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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