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चेतना की क्रीडाभूमि : अप्रमाद आहार, न नीहार। कुछ भी नहीं। न मच्छर उड़ाया, न अंगुली हिलाई, कुछ भी नहीं किया। वे खड़े थे। लगता था कोई पत्थर की प्रतिमा खड़ी है। यह चातुर्मासिक प्रतिमा थी। इसी प्रकार वार्षिक प्रतिमा का भी उल्लेख है। बाहुबली बारह मास तक कायोत्सर्ग में खड़े रहे। उनके शरीर पर लताएं फैल गयीं । वे खड़े ही रहे । हम एक-दो घंटे भी खड़े नहीं रह सकते। क्या हमारी शक्ति में और उनकी शक्ति में कोई अन्तर है ? नहीं, कुछ भी अन्तर नहीं है। जितनी शक्ति उनमें थी उतनी ही शक्ति हमारे भीतर है । अन्तर केवल इतना ही है कि वे अपनी शक्ति से परिचित थे और हम अपनी शक्ति से परिचित नहीं हैं। परिचय का अन्तर है। वे अपनी शक्ति और चेतना को भली-भांति जानते थे। हम अपनी शक्ति और चेतना को विस्मृत कर बैठे हैं। उन्हें शक्ति-विकास का सूत्र प्राप्त था। हमें वह प्राप्त नहीं है । इसीलिए चार महीने या बारह महीने तक खड़े रहने की बात से हमें आश्चर्य होता है । आश्चर्य इसीलिए होता है कि हम अपनी शक्ति से अजान हैं । हम अभ्यास करें तो संभाव्य शक्ति को अभिव्यक्त कर सकते हैं। यही साधना का रहस्य है।
सहिष्णुता का विकास संयम का विकास है । सहिष्णुता की शक्ति का 'विकास संयम-शक्ति का विकास है। कुछ व्यक्ति भयंकर कष्टों में भी विचलित नहीं होते। वे एक द्रष्टा की भांति कष्टों को देखते रहते हैं। यह सहिष्णुता का विकास है, संयम का विकास है।
____ अध्यात्म-शक्ति का एक रूप है-स्वावलंबी जीवन । कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो स्व-निर्भर होते हैं । सब कुछ वे अपने-आप ही करना चाहते हैं। वे पर-निर्भर नहीं होते । पर निर्भरता साधना का विघ्न है ।
___ साधना का दूसरा विघ्न है-अधति । आज के साधक साधना का तत्काल फल चाहते हैं। दो वर्ष साधना की। उसकी निष्पत्ति वे चाहते हैं। साधना के प्रारम्भ में ही पूछने लग जाते हैं कि इस साधना का क्या परिणाम होगा? उसे कहते हैं-"भाई ! अभी तो तुमने साधना प्रारम्भ की है और अभी निष्पत्ति चाहते हो? यह कैसे संभव है !" साधना में जो समय लगना चाहिए, जो काल का परिपाक होना चाहिए, उसके हुए बिना निष्पत्ति नहीं होती। निष्पत्ति के बिना साधक विचलित हो जाता है और वह साधना छोड़ देता है।
अध्यात्म-शक्ति का एक रूप है-क्षमा। कितनी ही विपरीत परि
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