________________
अध्यात्म और व्यवहार
ने आगे कहा - " जाओ, तुम उससे क्षमा-याचना कर लो ।" श्रमण ने पूछा - "भंते ! मुझे ऐसा क्यों करना चाहिए ?" आचार्य ने कहा - " उवसम उवसमसार खलु सामण्णं' - 'श्रामण्य का सार है - उपशम, शांति ।' वह दूसरा श्रमण तुम्हें आदर दे या न दे, तुम्हारी ओर देखे या न देखे, तुम्हारे से क्षमा-याचना करे या न करे, तुम जाओ और क्षमा-याचना कर लो। यह इसलिए करो कि यह तुम्हारे श्रामण्य का धर्म है, श्रामण्य की मांग है । तुम्हें ऐसा करना ही चाहिए ।"
..
३१६
यह है क्रियात्मक व्यवहार | आध्यात्मिक व्यक्ति यह अपेक्षा नहीं - रखता कि सामने वाला व्यक्ति क्या करता है ? वह यह सोचता है कि मेरा धर्म क्या कहता है ? धर्म की दृष्टि से मुझे क्या करना है ? यह है अन्यथा व्यवहार का पहला लक्षण ।
जिस व्यक्ति का व्यवहार क्रियात्मक नहीं होता उसका प्रत्येक आचरण • असंतुलित रहता है | संतुलन का अर्थ है-न इधर मुकाव, न उधर झुकाव । न पक्षपात, न राग, न द्वेष, न प्रियता और न अप्रियता । पूरा संतुलन । तराजू के दोनों पलड़े समान । कोई भी झुका हुआ नहीं ।
Jain Education International
उपनिषद् की एक कथा है । जाजली नाम के एक ऋषि घोर तप तप रहे थे। उनकी जटाएं बढ़ गयी थीं । वे निश्चल खड़े थे । पक्षियों ने उनकी - जटा में घोंसले बना लिये । उन्होंने अंडे दिए । अंडों से बच्चे निकले और - वयस्क होकर उड़ गए। तब तक ऋषि ज्यों-के-त्यों खड़े रहे । तप के साथसाथ अहं भी बढ़ता गया। मैंने कितना विकट तप तपा है ? यह भाव अहं को वृद्धिगत करता है प्रभुता पास में हो और अहंकार न हो, यह कब होता है ? ऐसा कौन व्यक्ति है जिसके पास प्रभुता है और अहं नहीं है ? ज्ञान का, सत्ता का, संपत्ति का, शक्ति का और प्रभुता का अहंकार होता है । तप का भी अहंकार होता है । तपस्वी का अहं पुष्ट होता जा रहा था । एक दिन देववाणी हुई - " जाजली ! अभी तक तुम सधे नहीं हो। तुम तुलाधर वैश्य के पास जाकर सीखो ।" यह सुनते ही ऋषि का मन बौखला गया । अहं पर गहरी चोट लगी । देववाणी के प्रति वह नत था । वह बिना कुछ ननुनच -किए तुलाधर वैश्य के पास आया । उसने देखा कि वैश्य तुलाधर एक दूकान में बैठा है । ग्राहक आ रहे हैं, जा रहे है । तुलाधर तराजू से तोलता जा रहा है । कोई साधना नहीं कोई ध्यान नहीं, कोई स्वाध्याय नहीं, कोई .. तपस्या नहीं | वह केवल तराजू से तोल रहा है । इतना सा ध्यान दे रहा है
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org